रविवार, 6 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)४९ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ४९ दिन ३१ =*
*= ज्ञान से ही मुक्ति व स्वप्न विचार =
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३१वें दिन सूर्योदय होने पर अकबर बादशाह सत्संग के लिये बाग में दादूजी के पास आये और हाथ जोड़ शिर नमा कर प्रणाम किया फिर सामने बैठकर पूछा - भगवन् आपके हिन्दुओं के शास्त्रों में यह प्रसिद्ध है कि काशी में मरणे से मुक्ति होती है किंतु आप तीर्थों के फल को तुच्छ बताते हैं और काशी तीर्थ ही है फिर आपके कथन में और हिन्दू शास्त्रों में यह मतभेद क्यों है ? इसका क्या रहस्य है वह आप मुझे बताने की कृपा अवश्य करें, मैं तो आपका ही शिष्य हूँ ।
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दादूजी ने कहा - हिन्दू शास्त्रों का कहना तो ठीक ही है, वे मुक्ति होना कहते हैं किंतु कैवल्य मुक्ति होना नहीं कहते । तीर्थों से पाप मुक्ति तथा सालोक्यादि मुक्ति होती हैं, यदि विधि पूर्वक तीर्थ स्नान और निवास किया जाय तो, विधि का त्याग करने पर तो उक्त मुक्तियां भी नहीं होती है ।
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कैवल्य मुक्ति तो निज स्वरूप के यथार्थ ज्ञान से ही होती है, अन्य साधन उसका कोई भी नहीं है, अन्य सब साधन ज्ञान के हैं और ज्ञान मुक्ति का साधन है, फिर भी अज्ञानी प्राणी तीर्थों के द्वारा मुक्ति मानकर सदा तीर्थों में भटकते ही रहते हैं । वह तो उनका ही अज्ञान है । तीर्थों की यात्रा, विधि पूर्वक निष्काम भाव से की जाय तो अंतःकरण शुद्ध होता है और सकाम भाव से की जाय तो कामना प्राप्त होती हैं ।
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"दादू केई दौड़ें द्वारिका, केई काशी जाहिं ।
केई मथुरा को चले, साहिब घट ही मांहिं ॥
दादू घट कस्तूरी मृग के, भरमत फिरे उदास ।
अंतर गति जाणे नहीं, तातैं सूंघे घास ॥
जैसे कस्तूरी मृग की नाभि में होती है किंतु वह अन्य घासादि को सूंघता फिरता है, 
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वैसे ही प्रभु तो हृदय प्रदेश में ही हैं किन्तु अज्ञान से प्राणी तीर्थादि में खोजता है ।
दादू सब घट में गोविन्द हैं, संग रहै हरि पास ।
कस्तूरी मृग में बसे, सूंघत डोले घास ॥
दादू जीव न जाणे राम को, राम जीव के पास ।
गुरु के शब्दों बाहरा, ता तैं फिरे उदास ॥
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दादू जा कारण जग ढूंढिया, सो तो घट ही मांहिं ।
मैं तो पड़दा भरम का, तातैं जाणत नांहिं ॥
दादू दूर कहैं ते दूर हैं, राम रह्या भर पूर ।
नैनहु बिन सूझै नहीं, तातैं रवि कित दूर ॥
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दादू पड़दा भरम का, रह्या सकल घट छाय ।
गुरु गोविन्द कृपा करैं, तो सहजैं ही मिट जाय ॥
दादू सब घट मांहीं राम रह्या, विरला बूझे कोय ।
सोई बूझे राम को, जे राम सनेही होय ॥
सदा समीप रहै संग सन्मुख, दादू लखे न गूझ ।
स्वप्ने ही समझे नहीं, क्यों कर लहै अबूझ ॥
(क्रमशः)


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