शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

= विन्दु (१)५७ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*विन्दु ५७ दिन ३९*
*= अध्यात्म ध्यान =*
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उक्त नख शिख संबन्धी उपदेश सुनकर अकबर ने कहा - स्वामिन् ! आपका सत्संग तो अति दुर्लभ है । भाग्योदय से ही प्राप्त हुआ है । अतः आज मेरे को अध्यात्म ध्यान की पद्धति भी बताइये ।
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अकबर का उक्त प्रश्न दादूजी बोले -
शब्द सुरति ले सान चित्त, तन मन मनसा माँहिं ।
मति बुधि पंचों आतमा, दादू अनत न जांहिं ॥
अपनी वृत्ति को विषयों से उठाकर सद्गुरु के शब्दों में मिलावे अर्थात् लगावे । चित्त से आत्म चिन्तन करे । शरीर का अध्यास छोड़कर शरीर को आत्मा का विवर्त्त जाने । मन से ब्रह्मात्मा के अभेद की बोधक युक्तियों का मनन करे । इच्छा भी ब्रह्म साक्षात्कार की ही करे और मन्तव्य भी आत्माराम की प्राप्ति ही हो । बुद्धि से ब्रह्म-विचार ही करे । पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेंन्द्रिय और पंच प्राणों को भी आत्मपरायण करे अर्थात् इन सबको आत्म तत्त्व प्राप्ति के साधन रूप कार्यों में ही लगावे, इस प्रकार स्थूल सूक्ष्म संघात को आन्तर आत्माराम में ही लगावे, आत्माराम को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाने दे तब अध्यात्म ध्यान सिद्ध होता है । यही अध्यात्म ध्यान की पद्धति है ।
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दादू तन मन पवना पंच गहि, ले राखे निज ठौर ।
जहां अकेला आप है, दूजा नाहीं और ॥
हिंसादि से शरीर को, सांसारिक वस्तुओं के मनन से मन को प्राणायाम से प्राणों की शीघ्रगति को, प्रत्याहार से ज्ञानेन्द्रियों को, मिताहार से कर्मेन्द्रियों को रोके, और आन्तर मुखतारूप हाथ से ग्रहण करके फिर जहां पर अपने आत्मस्वरूप ब्रह्म से भिन्न दूसरा कोई नहीं है, अद्वैत स्वरूप आप ही है, उसी निजात्मरूप स्थल में सब को स्थिर करके रक्खे ।
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दादू यहु मन सुरति समेटिकर, पंच अपूठे आणि ।
निकट निरंजन लाग रहु, संग सनेही जाणि ॥
इस चंचल मन की संसार में फैली हुई वृत्तियों को एकत्र करके तथा पंच ज्ञानेन्द्रियों को विषयों से लौटा कर लाये फिर व्यापक होने से अत्यन्त समीप निरंजन राम को अपना सदा का साथी और स्नेही जानकर, उसी के चिन्तन में लगा रहे ।
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मन चित मनसा आतमा, सहज सुरति ता मांहिं ।
दादू पंचों पूरले, जहँ धरती अम्बर नांहिं ॥
मनको मायिक मनन से चित्त को विषय चिन्तन से, बुद्धि को व्यावहारिक विचारों से, पंच ज्ञानेन्द्रियों को विषयाशक्ति से हटाकर सहज स्वरूप ब्रह्माकार वृत्ति द्वारा शरीर के भीतर ही, जहां पृथ्वी आकाशादि विकारों से रहित आत्मस्वरूप ब्रह्म है, उसी में सब को लय करे । यही अध्यात्म ध्यान की पद्धति है ।
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दादू भीगे प्रेम रस, मन पंचों का साथ ।
मगन भये रस में रहे, तब सन्मुख त्रिभुवन नाथ ॥
प्रथम साधक का मन पंच ज्ञानेन्द्रियों के सहित प्रभु-प्रेम-रस में भीगता है अर्थात् प्रेम युक्त होता है । फिर प्रेम-रस की वृद्धि होने पर मन-इन्द्रिय उसी के आनन्द में निमग्न रहने लगते हैं, तब त्रिभुवन नाथ परमात्मा उस साधक को प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं ।
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जहां राम तहँ मन गया, मन तहँ नैना जाय ।
जहँ नैना तहँ आतमा, दादू सहज समाय ॥
शरीर के भीतर हृदय देश में जहां राम की अनुभूति होती है, वहां ही जाकर साधक संपन्न मन स्थिर होता है । जहां मन स्थिर होता है वहां ही विचार नेत्र जाते हैं अर्थात् उसी का विचार होता है और जहाँ विचार नेत्र जाते हैं उसी राम में उक्त एकाग्रता के प्रभाव से अभेद ज्ञान होने पर जीवात्मा सहज स्वभाव से ही समा जाता है । अतः उक्त प्रकार साधन द्वारा अभेद स्थिति प्राप्त करना ही अध्यात्म ध्यान है । जो भी इस प्रकार अध्यात्म-ध्यान करता है, वह ब्रह्म में अभेद हो जाता है ।
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इतना कहकर सत्संग का समय समाप्त होने पर दादूजी मौन हो गये । उक्त उपदेश को सुनकर अकबरादि सभी श्रोताओं को परमानन्द प्राप्त हुआ । अकबर ने कहा - स्वामिन् ! आपका अध्यात्म ज्ञान अपार है, आप प्रतिदिन नवीन ही अनुभव पूर्ण उपदेश करते आयें हैं । आपके उपदेश से हमारे मन तृप्त तो नहीं होते हैं परन्तु आपके समय का भी ध्यान रखना ही पड़ता है ।
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यह कह कर अकबर उठे और दादूजी के चरणों में प्रणाम करके तथा आज्ञा माँग कर राजभवन को चले गये । अन्य सब श्रोता भी अपने अपने भवनों को चले गये । दादूजी के शिष्य संत अपनी अपनी दैनिक साधना में लग गये ।
इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग दिन ३९ विन्दु ५७ समाप्तः ।
(क्रमशः)

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