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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*बढई चरषा भलौ संवार्यौ*
*फिरनै लाग्यौ नीकी भांति ।*
*बहू सास कौं कहि समुंझावै*
*तूं मेरै ढिंग बैठी काति ।*
*नैन्हौं तार न टूटै कबहू*
*पूनी घटै दिवस नहिं राति ।*
*सुंदर बिधि सौं बुनै जुलाहा*
*पासा निपजै ऊंची जाति ॥१९॥*
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*= ह० लि० १,२ टीका =*
बढई नाम जो गुरु । गुरु बढई क्यूं ? जो घाट घड़िदे जासूं बढ़ई । भाई रे भानि घड़ै गुरु मेरा इति । चरखा जिज्ञासी का चित्त सो भलो संवारयो नाम उपदेश देकर शुद्ध कियो । सो नीकी भांति भले प्रकार करि फिर नैं लागो वाह्य वृत्ति कों छोडि करि अंतर्निष्ट हुओ ।
बहु बुद्द्धि सास सुरति ताकों यों कह समझावै - हे सुरति तूं मेरे ढिगी हृदा भीतरि बैठीकरि निश्चल होइकरि काति सुमरनरूपी आपनो कृत्य करि ।
सो ऐसा काति जो अत्यन्त साधन सों महासूक्ष्म सुमरन ताको तार जो अखंड बेग सो टूटै नहीं सदा एकरस रहै । तार पूंणी के आसिरै होवै है जो पूंणी को अंत आवै तो तार को भी अंत आवै । इहां सुमरनरूपी तार की पूंणी प्रीति है सो वा प्रीतिरूपा पूंणी घटण पावै नहीं नाम अखंड एकरस निदूखणी लगी रहै ।
ता शुद्ध सुमरनरूपी सूत कों जीव जुलाहा बुंणै नाम निष्कामता सौं परमेश्वर मैं अर्पण करै तब खास जाति अतिश्रेष्ठ भक्तिरूप वस्त्र निपजै । वा भक्ति कैसीक है ? अति ऊँची, अति उत्तमा फलानुसंधानरहिता ॥१९॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
सर्वज्ञ औ सरशक्तिमान जो इश्वर है ताकूं ही इहां बढ़ई कहिये सुतार कहैं हैं । काहे ते कि जैसे सुतार काष्ट विषै अनेक भांति के आकार करै हैं तातैं सो तिन आकारन का कर्ता है । जो कार्य का कर्ता होवै सो तो कार्य कार्य कूं औ ताके उपादान कूं जानिके करै है । इहां रहटिया कार्य है औ काष्ट उपादन है तिन दोनों को सुतार जानै है । तैसे ईश्वररूप सुतार माया के विषे अनेक रचना करे है तातें सो तिस रचना का कर्ता है । औ तिस रचनारूप कार्य कूं औ ताके उपादान माया कूं जानै है यातें सर्वज्ञ है । औ सर्व रचना करने में अद्भुत सामर्थ्यवाला होने ते सर्वशक्तिमान है । तिस इश्वर ने मनुष्यरूप कार्य उत्पन्न किया है सोई मानो चरखा कहिये रहटिया है । और सर्व शरीरन तें मनुष्य शरीर भलो सवारयो कहिये उत्तम बनायो है । सो नीकी भांति कहिये अच्छी तरह से फिरने लाग्यो । सो ऐसे पूर्वजन्म के शुभकर्म तें अंतःकरण में उत्तम संस्कार हुवे हैं । तिनतें सत्संगादि की प्राप्ति हुई है । औ सत्संगादिक करि ज्ञान के साधनों में प्रवृत्ति भई है । तातें पुनः पुनः सोई अभ्यास लाग्यो है ।
तिस अभ्यासवाली जो बुद्धि है सो विवेक पुत्र कूं जनै है । सोई मानौ बहु करिए पुत्र की पत्नी है । सो पूर्वोक्त अभ्यासयुक्त बुद्धिरूप अपनी सास कों ऐसे कहि समुझावै है - “ तूं मेरे ढिंग(पास) बैठी कात ।” कहिये लक्ष्य में स्थित होय के स्वरूप का अनुसंधान कर ।
स्वरूप के अनुसंधानरूप जो स्मरण है । ताको प्रवाह ही मानौ तार है सो कबहू न टूटै कहिये ता स्मरण का कदै भंग होवै नहीं । औ पूनी(रुई कि पूनी) जो स्वरूपाकार वृत्ति है सो रात - दिन घटे नहीं - कहिये अंतराय - सहित होवै नहीं कहिये एकरस रहै है ।
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि विधि सूं कहिये श्रवण मनन औ निदिध्यासनादिक ज्ञान के साधनों करि स्वरूप के साक्षात्काररूप जुलाहा कहिये कपड़ा बुनै । तब सो खासा निपजै कहिये सर्व अनर्थ की निवृत्ति औ परमानंद को प्राप्तिरूप शोभादायक होवै । याकूं ही *मुक्ति* कहैं है । सो मुक्ति दो प्रकार की है - एक जीवन्मुक्ति । दूसरी विदेहमुक्ति । शरीर सहित कूं बंध - भ्रम का जो अभाव होवै है सो *जीवन्मुक्ति* कहिये है । औ ज्ञान तें अज्ञान की निवृत्ति प्रारब्ध - भोग तें अनंतर स्थूलसूक्ष्म शरीराकार अज्ञान का जो चेतन में लय होवै है सो *विदेहमुक्ति* कहिये है । तिनमें विदेह - मुक्ति तो ज्ञानी कूं अवश्य होवै है । तैसे ही भ्रम के नाश - क्षण में जीवन्मुक्ति भी संभव है । परन्तु जो शरीर के प्रारब्ध के अधिक भोग के हेतु होवैं तौ प्रवृत्ति के बलतैं जीवन्मुक्ति का आनन्द प्राप्त होवै नहीं । सो भोगन की न्यूनता तें निवृत्ति के बल करि जीवन्मुक्ति के आनन्दरूप ऊंची जाति कहिये उत्कृष्ट प्रकार का बन्या है ॥१९॥
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*= सुन्दरदासजी की साखी =*
बढई कारीगर मिल्यौ, चरषा गढ्यौ बनाइ ।
सुन्दर बहू सतेबरी उलटो दियौ फिराइ ॥२८॥
(क्रमशः)
*फिरनै लाग्यौ नीकी भांति ।*
*बहू सास कौं कहि समुंझावै*
*तूं मेरै ढिंग बैठी काति ।*
*नैन्हौं तार न टूटै कबहू*
*पूनी घटै दिवस नहिं राति ।*
*सुंदर बिधि सौं बुनै जुलाहा*
*पासा निपजै ऊंची जाति ॥१९॥*
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*= ह० लि० १,२ टीका =*
बढई नाम जो गुरु । गुरु बढई क्यूं ? जो घाट घड़िदे जासूं बढ़ई । भाई रे भानि घड़ै गुरु मेरा इति । चरखा जिज्ञासी का चित्त सो भलो संवारयो नाम उपदेश देकर शुद्ध कियो । सो नीकी भांति भले प्रकार करि फिर नैं लागो वाह्य वृत्ति कों छोडि करि अंतर्निष्ट हुओ ।
बहु बुद्द्धि सास सुरति ताकों यों कह समझावै - हे सुरति तूं मेरे ढिगी हृदा भीतरि बैठीकरि निश्चल होइकरि काति सुमरनरूपी आपनो कृत्य करि ।
सो ऐसा काति जो अत्यन्त साधन सों महासूक्ष्म सुमरन ताको तार जो अखंड बेग सो टूटै नहीं सदा एकरस रहै । तार पूंणी के आसिरै होवै है जो पूंणी को अंत आवै तो तार को भी अंत आवै । इहां सुमरनरूपी तार की पूंणी प्रीति है सो वा प्रीतिरूपा पूंणी घटण पावै नहीं नाम अखंड एकरस निदूखणी लगी रहै ।
ता शुद्ध सुमरनरूपी सूत कों जीव जुलाहा बुंणै नाम निष्कामता सौं परमेश्वर मैं अर्पण करै तब खास जाति अतिश्रेष्ठ भक्तिरूप वस्त्र निपजै । वा भक्ति कैसीक है ? अति ऊँची, अति उत्तमा फलानुसंधानरहिता ॥१९॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
सर्वज्ञ औ सरशक्तिमान जो इश्वर है ताकूं ही इहां बढ़ई कहिये सुतार कहैं हैं । काहे ते कि जैसे सुतार काष्ट विषै अनेक भांति के आकार करै हैं तातैं सो तिन आकारन का कर्ता है । जो कार्य का कर्ता होवै सो तो कार्य कार्य कूं औ ताके उपादान कूं जानिके करै है । इहां रहटिया कार्य है औ काष्ट उपादन है तिन दोनों को सुतार जानै है । तैसे ईश्वररूप सुतार माया के विषे अनेक रचना करे है तातें सो तिस रचना का कर्ता है । औ तिस रचनारूप कार्य कूं औ ताके उपादान माया कूं जानै है यातें सर्वज्ञ है । औ सर्व रचना करने में अद्भुत सामर्थ्यवाला होने ते सर्वशक्तिमान है । तिस इश्वर ने मनुष्यरूप कार्य उत्पन्न किया है सोई मानो चरखा कहिये रहटिया है । और सर्व शरीरन तें मनुष्य शरीर भलो सवारयो कहिये उत्तम बनायो है । सो नीकी भांति कहिये अच्छी तरह से फिरने लाग्यो । सो ऐसे पूर्वजन्म के शुभकर्म तें अंतःकरण में उत्तम संस्कार हुवे हैं । तिनतें सत्संगादि की प्राप्ति हुई है । औ सत्संगादिक करि ज्ञान के साधनों में प्रवृत्ति भई है । तातें पुनः पुनः सोई अभ्यास लाग्यो है ।
तिस अभ्यासवाली जो बुद्धि है सो विवेक पुत्र कूं जनै है । सोई मानौ बहु करिए पुत्र की पत्नी है । सो पूर्वोक्त अभ्यासयुक्त बुद्धिरूप अपनी सास कों ऐसे कहि समुझावै है - “ तूं मेरे ढिंग(पास) बैठी कात ।” कहिये लक्ष्य में स्थित होय के स्वरूप का अनुसंधान कर ।
स्वरूप के अनुसंधानरूप जो स्मरण है । ताको प्रवाह ही मानौ तार है सो कबहू न टूटै कहिये ता स्मरण का कदै भंग होवै नहीं । औ पूनी(रुई कि पूनी) जो स्वरूपाकार वृत्ति है सो रात - दिन घटे नहीं - कहिये अंतराय - सहित होवै नहीं कहिये एकरस रहै है ।
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि विधि सूं कहिये श्रवण मनन औ निदिध्यासनादिक ज्ञान के साधनों करि स्वरूप के साक्षात्काररूप जुलाहा कहिये कपड़ा बुनै । तब सो खासा निपजै कहिये सर्व अनर्थ की निवृत्ति औ परमानंद को प्राप्तिरूप शोभादायक होवै । याकूं ही *मुक्ति* कहैं है । सो मुक्ति दो प्रकार की है - एक जीवन्मुक्ति । दूसरी विदेहमुक्ति । शरीर सहित कूं बंध - भ्रम का जो अभाव होवै है सो *जीवन्मुक्ति* कहिये है । औ ज्ञान तें अज्ञान की निवृत्ति प्रारब्ध - भोग तें अनंतर स्थूलसूक्ष्म शरीराकार अज्ञान का जो चेतन में लय होवै है सो *विदेहमुक्ति* कहिये है । तिनमें विदेह - मुक्ति तो ज्ञानी कूं अवश्य होवै है । तैसे ही भ्रम के नाश - क्षण में जीवन्मुक्ति भी संभव है । परन्तु जो शरीर के प्रारब्ध के अधिक भोग के हेतु होवैं तौ प्रवृत्ति के बलतैं जीवन्मुक्ति का आनन्द प्राप्त होवै नहीं । सो भोगन की न्यूनता तें निवृत्ति के बल करि जीवन्मुक्ति के आनन्दरूप ऊंची जाति कहिये उत्कृष्ट प्रकार का बन्या है ॥१९॥
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*= सुन्दरदासजी की साखी =*
बढई कारीगर मिल्यौ, चरषा गढ्यौ बनाइ ।
सुन्दर बहू सतेबरी उलटो दियौ फिराइ ॥२८॥
(क्रमशः)
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