सोमवार, 7 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)४९ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ४९ दिन ३१ =*
*= ज्ञान से ही मुक्ति व स्वप्न विचार =*

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उक्त उपदेश सुनकर अकबर बादशाह ने पूछा - स्वप्न कैसे होता है ? यह भी आप कृपा करके मुझे बताइये । स्वप्न के विषय में कुछ लोग तो कहते हैं कि जीवात्मा शरीर से बाहर जाकर सच्चे वन, पर्वतादिक को देखता है और कुछ लोग कहते हैं, बाहर नहीं जाता है भीतर ही सब कुछ देखता है । सो आप कृपा करके बतायें यथार्थ दोनों में कौन सी बात है । आपके बताने से ही मुझे ज्ञात होगा ।
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तब दादूजी बोले -
"दादू जागे को आया कहैं, सूते को कह जाय ।
आवण जाणा झूठ हैं, जहां का तहां समाय ॥"
स्वप्न के विषय में अबोध प्राणी जागने को ही आना कहते हैं और सोने को ही जाना कहते हैं । वास्तव में तो आना-जाना दोनों ही मिथ्या हैं । क्यों ? बाहर जाने से तो शरीर शव के समान अमंगलरूप होना चाहिये, सो तो होता नहीं है । स्वप्न के समय तो प्राण चलते रहते हैं । प्राण के निकले बिना सूक्ष्म शरीर रूप जीवात्मा बाहर जा ही नहीं सकता है ।
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इससे शरीर के बाहर जाने की बात तो मिथ्या ही है । और जब जाता ही नहीं है तब आता है, यह कहना भी कल्पना मात्र ही है । अतः आने-जाने की बात तो सर्वथा मिथ्या ही है । जीवात्मा तो जहां का तहां ही शरीर में समाया हुआ रहता है । उक्त विचार सुनकर अकबर ने पूछा - स्वप्न कब तक दीखते हैं, यह भी कृपा करके बताइये ?
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उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी बोले -
"स्वप्ना तब लग देखिये, जब लग चंचल होय ।
जब निश्चय लागा नाम से, तब स्वप्ना नांहीं कोय ॥"
स्वप्न तब तक ही देखा जाता है, जब तक मन चंचल रहता है और जब मन सुषुप्ति में जाकर अपने कारण अज्ञान में मिलकर निश्चल हो जाता है, तब स्वप्न नहीं दीखता है, वैस ही संसार स्वप्न भी तब तक ही दीखता है, जब तक विषयाशा से मन चंचल रहता है और जब नाम चिन्तन द्वारा मन निश्चल होकर निश्चल ब्रह्म में लीन हो जाता है, तब संसार स्वप्न भी नहीं दीखता है । फिर तो सर्व विश्व ब्रह्म रूप ही भासता है । भिन्न कुछ भी नहीं भासता ।
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"जागत जहँ जहँ मन रहै, सोवत तहँ तहँ जाय ।
दादू जे जे मन बसे, सोइ सोइ देखे आय ॥"
पूर्व जन्मों में तथा वर्तमान जन्म के पूर्वकाल की जाग्रतावस्था में जो देखा, सुना होता है, उन्हीं के संस्कारों से स्वप्नकाल में हिंसा नामक नाड़ी में वे भास जाते हैं । इससे सिद्ध होता है कि जो-जो पहले मन में संस्कार रूप से बसा रहता है, सो-सो ही हिता नामक नाड़ी में आकर देखता है ।
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"दादू जो जो चित बसे, सोइ सोइ आवे चीत१ ।
बाहर भीतर देखिये, जाही सेती प्रीत ॥
श्रावण हरिया देखकर, मन चित ध्यान लगाय ।
दादू केते जुग गये, तो भी हरा न जाय ॥
जो-जो पूर्वकाल में चित्त में बसा रहता है, सो-सो ही भविष्य में चित्त१ में आता है और जिसमें प्रीति होती है, वही बाहर भीतर देखने में आता है, अन्य नहीं । जैसे कोई श्रावण मास में अंधा हो जाय तो उसे मन से ध्यान लगाने पर तथा चित्त से चिन्तन करने पर चाहे कितने ही युग(१२ वर्ष का एक युग) चले जायें तो भी मन से हरियाली का ध्यान और चित्त से हरियाली का चिन्तन दूर नहीं होता है, वैसे ही अनेक जन्मों के संस्कारों के द्वारा तथा इस जन्म के पूर्वकाल के संस्कारों के द्वारा कंठ देश की हिता नामक नाड़ी में स्वप्न सृष्टि होती है ।
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"दादू जागत स्वप्ना हो गया, चिन्तामणि जब जाय ।
तब ही साँचा होत है, आदि अंत उर लाय ॥"
जिस समय भक्तों के लिये चिन्तामणि स्वरूप परमात्मा का चिन्तन चित्त से चला जाता है, तब जाग्रत् अवस्था भी स्वप्न के सामान व्यर्थ ही हो जाती है और जब अपने जीवन के आदिकाल बाल्यावस्था से लेकर शरीरांत तक अपना ह्रदय प्रभु के ध्यान में ही लगा रहे तब तो चिन्तन करने वाला भी सत्य ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त होकर सत्य ब्रह्मस्वरूप ही हो जाता है ।
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ब्रह्म वेत्ता ब्रह्मरूप होता है, यह श्रुति भी प्रसिद्ध ही है । ब्रह्म चिन्तन का ऐसा ही महत्त्व है । उक्त उपदेश करके दादूजी ने कहा - हे अकबर ! स्वप्न कंठ देश की हिता नामक नाड़ी में ही होता है । स्वप्न देखने के लिये कहीं बाहर जाना आना नहीं होता है । ब्रह्म चिन्तन नहीं करने से ही स्वप्न समान यह मिथ्या जगत सत्य-सा भास रहा है और निश्चल ब्रह्म में चित्त की सम्यक् स्थापना होने पर तो मिथ्या ही भासेगा, सत्य किसी प्रकार भी नहीं ठहर सकता ।
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इतना कहकर सत्संग का समय समाप्त होने से दादूजी मौन हो गये तब अकबर ने पूछा - भगवन् ! आपको बारंबार धन्यवाद है । आपका यहां आगमन मेरे भाग्योदय से ही हुआ है । आपको बारंबार प्रणाम है ऐसा कहकर बादशाह ने शिर चरणों में नमाया और आज्ञा माँग राज भवन को चले गये ।
== इति श्री दादू चरितामृत सीकरी सत्संग दिन ३१ विन्दु ४९ समाप्तः ।
(क्रमशः)


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