सोमवार, 7 दिसंबर 2015

(३४. आश्चर्य को अंग=१५)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३४. आश्चर्य को अंग*
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*योगी थके कहि जैन थके,*
*रिषि तापस थाकी रहै फल खातैं ।*
*न्यासि थके बनवासि थके जु,*
*उदासि थके बहु फेर फिरातैं ॥*
*सेख मसाइक और उ लाइक,*
*थाकि रहे मन मैं मुसकातैं ॥*
*सुंदर मौंन गही सिध साधक,*
*कौंन कहै उसकी मुख बातैं ॥१५॥*
॥ इति आश्चर्य को अंग ॥३४॥ 
उसका वर्णन करते हुए अच्छे योगी, जैन, ॠषि, तपस्वी सभी थक चुके, कोई निश्चित परिणाम तक नहीं पहुंच सका । 
इसी तरह अन्य संन्यासी, वनवासी या उदासि-सभी साधक उसकी वास्तविकता जानने हेतु परिश्रम करते करते थक चुके । 
इस्लाम धर्म के भी जितने शेख(ज्ञानी) एवं अनुसंधाता या योग्य पुरुष हुए हैं, वे सब भी इस की खोज करते हुए, अन्त में मुस्करा कर चुप हो गये । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - अतः महान् ज्ञानी सिद्ध साधक भी उस का वर्णन करने में संकोच ही करते हैं; क्योंकि वे भी जान गये हैं कि जब हमें उस के पार तक पहुँचना ही नहीं है तो व्यर्थ बोलकर अपने मुख को भी कष्ट क्यों दें ॥१५॥
॥ इति आश्चर्य को अंग ॥३४॥
॥ सवैया(सुन्दरविलास) ग्रन्थ सम्पूर्ण ॥

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