सोमवार, 7 दिसंबर 2015

पद. ४१५

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४१५. धीमा ताल ~
लाग रह्यो मन राम सौं, अब अनतैं नहिं जाये रे । 
अचला सौं थिर ह्वै रह्यो, सकै न चित्त डुलाये रे ॥ टेक ॥ 
ज्यों फुनिंग चंदन रहै, परिमल रहै लुभाये रे । 
त्यूँ मन मेरा राम सौं, अब की बेर अघाये रे ॥ १ ॥ 
भँवर न छाड़ै बास को, कँवल हि रह्यो बँधाये रे । 
त्यूं मन मेरा राम सौं, वेध रह्यो चित्त लाये रे ॥ २ ॥ 
जल बिन मीन न जीवई, विछुरत ही मर जाये रे । 
त्यों मन मेरा राम सौं, ऐसी प्रीति बनाये रे ॥ ३ ॥ 
ज्यूं चातक जल को रटै, पीव पीव करत बिहाये रे । 
त्यों मन मेरा राम सौं, जन दादू हेत लगाये रे ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव अविनाशी परमेश्‍वर के रंग का परिचय दिखा रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! अब तो हमारा मन एक निरंजन राम के स्वरूप में लग रहा है । अब वह अन्य किसी का भी चिन्तन नहीं करता है, अचल अमर ब्रह्म में ही स्थिर हो रहा है । अब हमारा चित्त चंचल नहीं होता है । जिस प्रकार सर्प चन्दन की सुगन्धि और शीतलता के लिये चन्दन के वृक्ष के आकर लिपटता है, ऐसे ही हमारा मन परम आनन्द की प्राप्ति के लिये राम के स्वरूप - चिन्तन में लगा है । और हम इस वर्तमान मनुष्य - जन्म में ही तृप्त हो रहे हैं । जिस प्रकार भँवर कमल की सुगन्धि का त्याग नहीं करता और सायँकाल सूर्य छिपने पर उसी में बन्द हो जाता है, वैसे ही हमारा मन, राम के स्वरूप - चिन्तन से विद्घ होकर उसी में स्थिर रहता है । जैसे जल के बिना मछली जीवित नहीं रह सकती, वैसे ही हमारे मन ने राम - स्मरण मै मछली जैसी प्रीति बनाई है, राम स्मरण का त्याग करके जीवित नहीं रह सकता । जैसे पपीहा बूँद के लिये रटना लगाता रहता है, और ‘पीव पीव’ पुकारता है । हे जनो ! वैसे ही हमारा मन एक राम को पपीहा की भाँति प्रीति सहित पुकारता रहता है । 
The mind is attached to God; 
now it goes not anywhere else. 
Being established in the Immovable, 
it has become motionless; it can shake no more. 
As the snake resting on the sandalwood tree 
is captivated by its fragrance, 
So is my mind contented this time with God. 
As the bee forsakes not the fragrance 
and is bound within the lotus, 
My mind, likewise, is pierced by God’s love 
and is absorbed in Him. 
As the fish survives not without water 
and dies as soon as it is separated, 
So does my mind intently pine for God, 
says Dadu, thy servant. 
As the rain-bird cries again and again for water, 
and passes its time intently attached to God, 
O friend, says Dadu.
(English translation from
"Dadu~The Compassionate Mystic" 
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)

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