बुधवार, 30 दिसंबर 2015

= १३३ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू सच बिन सांई ना मिलै, भावै भेष बनाइ ।
भावै करवत उर्ध्वमुख, भावै तीरथ जाइ ॥ 
हिरदै की हरि लेइगा, अंतरजामी राइ ।
साच पियारा राम को, कोटिक करि दिखलाइ ॥ 
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

अशुद्धि का अर्थ है:स्वयं के स्वभाव से भिन्न को थोप लेना। शुद्धि का अर्थ है:स्वयं के स्वभाव से जीना। रंचमात्र समझौता न करना, चाहे प्राण भी क्योँ न चले जाएं।
न स्वयं समझौता करना और न दूसरे पर दबाव डालना कि वो समझौता करे।
क्योँकि जब दूसरा दबाव मे समझौता करेगा तो मनुष्य को भी उससे समझौता करना पड़ेगा।
ये तो लेन-देन हो गया और दोनो अशुद्ध हो गए।
लेकिन मनुष्य अच्छे नामोँ की आड़ मे अशुद्धि छिपाता है।
मनुष्य किसी की भी नकल करने और उस जैसा बनने का प्रयास छोड़ दे।
जो वो है वो ही बने रहने का भाव रखे।
और स्वयं जैसा बनने के लिये किसी प्रयास की जरुरत नही है।
कोई भी कीमत हो मनुष्य चुकाए लेकिन इसी शुद्धता मे जीवन जिये।
ये चित्त शुद्धि की सर्वाधिक सरल विधि है।
चित्त शुद्ध है,मनुष्य केवल विजातीय न डाले।
केवल पाखंड छोड़ दे।
मनुष्य अपनी निजता को गौरव दे,गरिमा दे।
परमात्मा ने जैसा बनाया है बस वैसे ही जिये,बेशर्त! और मनुष्य चित्त की विशुद्धि को उपलब्ध कर लेगा।
जहां चित्त विशुद्ध हुआ वहां परमात्मा उपलब्ध हुआ।
ये ही है सिद्धि।
ये ही है मुक्ति।
जो यहां नही है वो कहीँ भी नही है।
और जो यहां है वो सब जगह है।

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