बुधवार, 30 दिसंबर 2015

= १३४ =


卐 सत्यराम सा 卐
ऊपरि आलम सब करैं, साधू जन घट माँहि ।
दादू एता अन्तरा, ताथैं बनती नांहि ॥ 
दादू सब थे एक के, सो एक न जाना ।
जने जने का ह्वै गया, यहु जगत दिवाना ॥
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

आदर्शोँ को पूरा नहीँ किया जा सकता।
गुलाब यदि जूही बनना चाहे तो बन तो सकता नहीँ,तो अब एक ही उपाय है कि अपने गुलाब होने को ढांक ले और जूही का नकलीपन अपने ऊपर ओढ़ ले।लेकिन ये झूठ होगा।
मनुष्य जो है उसी को निखारे।कुछ और होने का प्रयास न करे।
और मनुष्य जैसा है वैसा ही समाज को स्वीकार्य नही है इसका भी ध्यान रखे मनुष्य।
ये ही मूल कारण है मनुष्य के पाखंडी होने का।
लेकिन मनुष्य समाज की बिलकुल चिंता न ले।
क्योँकि इस तरह तो वो समाज की गुलामी कर रहा है और समाज जैसा स्वीकारता है उसके अनुसार परिचालित होकर पाखंडी बन रहा है।
छोड़ दे ये गुलामी।
तोड़ दे समाज का नियंत्रण।
सहज को साध कर चित्त को विशुद्ध कर ले।
क्यो चित्त विशुद्ध हो जाता है?
जहां पाखंड नही है,वहां शुद्धि है।
शुद्ध का क्या अर्थ है?
दुध मे पानी मिलाने पर दूध अशुद्ध हो गया चाहे जल कितना भी शुद्ध क्योँ न हो।
और केवल दूध ही अशुद्ध नही होता जल भी अशुद्ध हो गया।जल कीमती न होने के कारण उसकी कोई फिक्र नही लेता।
दो शुद्ध चीजेँ मिलकर दोनो अशुद्ध हो गईँ।
अशुद्ध का अर्थ है विजातीय।
जल के मिलाने से दोनो की स्वाभाविकता नष्ट हो गई।

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