बुधवार, 30 दिसंबर 2015

= १३२ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू सरवर सहज का, तामें प्रेम तरंग ।
तहँ मन झूलै आत्मा, अपणे सांई संग ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~

ताकुआन नाम के फकीर के पास कोई गया है। और पूछता है ताकुआन से कि तुम्हारी साधना क्या है?

तो ताकुआन कहता है, मेरी और कोई साधना नहीं है। मेरे गुरु ने तो इतना ही कहा है कि जब नींद आए, तब सो जाना; और जब भूख लगे, तब भोजन कर लेना। तो जब मुझे नींद लगती है, मैं सो जाता हूं। और जब नींद टूटती है, तब उठ आता हूं। जब भूख लगती है, तब भोजन ले लेता हूं; जब नहीं लगती है, तब नहीं लेता हूं। जब बोलने जैसा होता है, तो बोल देता हूं; और जब मौन रहने जैसा होता है, तो मौन रह जाता हूं।

तो वह आदमी कहता है, यह भी कोई साधना है! यह कोई साधना है?

पर ताकुआन कहता है, पता नहीं यह साधना है या नहीं। क्योंकि मेरे गुरु ने कहा कि साध सकते हो तुम, यही अज्ञान है। साध सकते हो तुम, यही अज्ञान है। तो मैं कुछ साध नहीं रहा हूं। अब तो जो होता है, उसे देखता रहता हूं। पता नहीं, यह साधना है या नहीं! इतना तुमसे कहता हूं कि जब से ऐसा स्वीकार किया है नींद को, भूख को, उठने को, सोने को, जागने को, तब से मैं परम आनंद में हूं, तब से दुख मेरे ऊपर नहीं आया है। क्योंकि मैंने सभी स्वीकार कर लिया है। अगर दुख भी आया है, तो अब मैं उसे दुख करके नहीं पाता हूं, क्योंकि स्वीकार कर लिया है। सोचता हूं कि घट रहा है ऐसा।

ध्यान रहे, दुख भी तभी दुख मालूम पड़ता है, जब हम अस्वीकार करते हैं। दुख का जो दंश है, वह दुख में नहीं, हमारी अस्वीकृति में है। दुख में पीड़ा नहीं है, पीड़ा हमारे अस्वीकार में है कि ऐसा नहीं होना चाहिए था, और हुआ, इसलिए पीड़ा है। अगर मैं ऐसा जानूं कि जो हुआ, वैसा ही होता, वैसा ही होना चाहिए था, वही हो सकता था, तो दुख का कोई दंश, दुख की कोई पीड़ा नहीं रह जाती। सुख के छिन जाने में कोई पीड़ा नहीं है। सुख नहीं छिनना चाहिए था, मैं बचा लेता, बचा न पाया, उसमें पीड़ा है। अगर मैं जानूं कि सुख आया और गया; जो आता है, वह चला जाता है; अगर मेरे मन में यह खयाल न हो कि मैं बचा सकता था, तो पीड़ा का फिर कोई सवाल नहीं है।

तो ताकुआन कहता है, मुझे पता नहीं कि साधना क्या है। इतना मैं जानता हूं कि जब से मैंने ऐसा जाना और जीया है, तब से मैंने दुख को नहीं जाना।...osho

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