शनिवार, 5 दिसंबर 2015

= ७८ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू माटी के मुकाम का, सब कोइ जाणैं जाप ।
एक आध अरवाह का, बिरला आपै आप ॥ 
दादू जब लग असथल देह का, तब लग सब व्यापै ।
निर्भय असथल आत्मा, आगै रस आपै ॥ 
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साभार ~ नरसिँह जायसवाल ~ 
*** आत्मा ही गुरु ***
महर्षि शाल्विन की एक पत्नी श्लेषा ब्राह्मण थी और दूसरी पत्नी इतरा शूद्र कन्या। कुछ दिनों बाद दोनों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया। जब वे किशोर हुए तो एक दिन दोनों ही महर्षि के यज्ञ स्थल में प्रविष्ट हुए। 
महर्षि शाल्विन ने श्लेषा के पुत्र को यज्ञ वेदी पर विधिपूर्वक बिठाया, मगर इतरा के पुत्र को डांट-फटकार कर भगा दिया। घर लौटकर वह मां के आंचल में मुंह छिपाकर रोने लगा।
इतरा सब कुछ समझ गई। उसने बेटे को छाती से लगाकर कहा, "प्रिय वत्स ! तुम अपनी आत्मा को ही गुरु मानकर धरती की गोद में बैठकर उपासना आरम्भ कर दो मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।" 
मां की आज्ञा को शिरोधार्य कर पुत्र घर से निकल पड़ा। कुछ वर्षों बाद पुत्र घर वापस आया तो इतरा फूली न समाई। पुत्र के हाथ में एक पाण्डुलिपि देखकर इतरा एवं महर्षि के मन में जिज्ञासा उतपन्न हुई। 
यह पाण्डुलिपि कुछ और नहीं "वैदिक मंत्रों की विशुद्धतम व्याख्या थी" जिसे ऐतरेय ब्राह्मण के नाम से जाना जाता है। 
महर्षि शाल्विन ने जब यह बात जानी तो उनकी आंखें स्नेह और पश्चाताप से छलक उठीं।
सौजन्य -- सन्मार्ग !

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