मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)५० =


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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ५० दिन ३२ =*
*= आदिदेश(ब्रह्म) का परिचय, प्राप्ति का साधन और निज मित्र =*
३२वें दिन सूर्योदय होने पर अकबर बादशाह सत्संग के लिये बाग में दादूजी के पास गये और प्रणाम कर हाथ जोड़कर सामने बैठ गये फिर बोले भगवन् ! हिन्दुओं के सभी देवताओं के लोक बतलाये गये हैं - जैसे विष्णु का वैकुण्ठ, शिव का कैलाश, ब्रह्मा का सत्यलोक, इन्द्र का स्वर्ग इत्यादि वैसे ही आप भी परमात्मा स्वरूप ही हैं । 
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अतः आपका भी कोई लोक विशेष होगा । इस लोक में तो आप जीवों का उद्धार निमित्त ही पधारे हैं और अपना कार्य पूर्ण करके चले जायेंगे । अतः आप बतावे आपका आदि स्थान कौन है ।  अकबर का उक्त  प्रश्न सुनकर दादूजी बोले - हम ब्रह्म रूप देश में बसते हैं, वहां ऋतु भेद भी नहीं है अर्थात नहीं ऋतु  बदलती हैं, सदा एक रस रहता है, वही हमारा देश है, और अति आश्चर्य रूप भी है ।
"बारह मासी नीपजे, तहां किया सु प्रवेश । 
तहँ कुछ अचरज देखिया, यह कुछ औरहि देश ।" 
ब्रह्म रूप में सदा सुकाल ही रहता है । उसी में हमने प्रवेश किया है । इस मायिक देश से विलक्षण निर्विषयानन्द प्राप्ति रूप आश्चर्य वहां देखा जाता है और प्रत्यक्ष ज्ञात होता है कि यह देश मायिक संसार रूप देश से विलक्षण ही है । 
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आदि स्थान का परिचय देकर अब उस स्थान में चलने की प्रेरणा कर रहे हैं -
"चल दादू तहँ जाइये, जहँ मरे न जीवे कोय । 
आवागमन भय को नहीं, सदा एक रस होय ॥
चल दादू तहँ जाइये, जहँ चंद सूर नहिं जाय । 
रात दिवस का गम नहीं, सहजैं रह्या समाय ॥
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चल दादू तहँ जाइये, माया मोह से दूर । 
सुख दुःख को व्यापे नहीं, अविनाशी घर पूर ॥
चल दादू तहँ जाइये, जहँ जम जोरा को मांहिं । 
काल मींच लागे नहीं, मिल रहिये ता मांहिं ॥
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पद - "चल रे मन तहँ जाइये, चरण बिन चलबो । 
श्रवण बिन सुनबो, बिन कर बैन बजाइये ॥टेक॥
तन नांहीं जहँ, मन नाहीं तहँ, प्राण नहीं तहँ आइये । 
शब्द नहीं जहँ, जीव नहीं तहँ, बिन रसना मुख गाइये ॥१॥
पवन पावक नहीं, धरणि अम्बर नहीं, उभय नहीं तहँ लाइये । 
चंद नहीं जहँ, सूर नहीं तहँ, परम ज्योति सुख पाइये ॥२॥
तेज पुंज सो सुख का सागर, झिलमिल नूर नहाइये । 
तहँ चल दादू अगम अगोचर, तामें सहज समाइये ॥३॥ 
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दादूजी महाराज का उक्त रहस्यमय उपदेश सुनकर अकबर ने कहा - भगवन् ! आपने जो ब्रह्मरूप आदि स्थान बताया है और उसमें जाने की प्रेरणा की है किंतु उस ब्रह्मरूप देश में मेरे विचार से दीर्घकाल तक वन में रहकर साधन करने वाला साधक ही जा सकता है, अन्य का जाना तो संभव नहीं है । अतः ऐसा वन भी आप बताने की कृपा करें, जिसमें साधन करके साधक अनायास ही उक्त ब्रह्मरूप देश को प्राप्त करके उसका रूप हो जाय । 
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अकबर का उक्त प्रश्न सुनकर परम दयालु दादूजी अपने मन के व्याज से बोले -
पद - "चल रे मन जहँ अमृत बना, निर्मल नीके संत जाना ॥टेक॥
निर्गुण नाम फल अगम अपार, संतन जीवन प्रान अधार ॥१॥ 
शीतल छाया सुखी शरीर, चरण सरोवर निर्मल नीर ॥२॥ 
सुफल सदा फल बारह मास, नाना वाणी ध्वनि प्रकाश ॥३॥ 
तहाँ वास बस अमर अनेक, तहँ चल दादू इहै विवेक ॥४॥
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अरे मन ! जहां सत्संग रूप अमृत वन है, वहां ही चल, उस वन में परम निर्मल संतरूप वृक्ष हैं, उन वृक्षों में निर्गुण ब्रह्म का नाम रूप फल प्राप्त होता है, जिसका चिन्तन भक्षण करने से संतों का जीवन-प्राणाधार, मन इन्द्रियों का अविषय, अपार, प्रभु प्राप्त होता है । उस वन के सन्तरूप वृक्षों की शांति रूप छाया शीतल है, उससे शरीर सुखी होता है । भगवान् के चरण ही सरोवर हैं, उनका ध्यान-जल प्राणी को निर्मल करता है । 
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इस वन के नाम, ज्ञान आदि सभी सुन्दर हैं और यह वन बारह मास सदा ही फल देता है । इस वन में इष्ट, पूर्त, नीति, सदाचार, भक्ति, योग, ज्ञानादिक गर्वित नाना वाणीरूप ध्वनि प्रकट होती है । सत्संग वन में निवास करके अनेक साधक अमर ब्रह्म को प्राप्त होकर अमर हो गये हैं । अतः वहां ही चलना चाहिये । इस सत्संग में ही विवेक-ज्ञान प्राप्त होता है । 
(क्रमशः)

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