मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=१)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*परिशिष्ट : एक* 
*= तीन टीकाओं के साथ =*
(१. विपर्यय-विपरीत(उलटा), जो सुनने में असम्भव, असंगत या बेढंग हो, परन्तु उसका अर्थ चमत्कारयुक्त हो । ऐसे शब्द सन्त कबीर, श्री दादू जी महाराज आदि सन्तों ने भी कहे हैं । अतः हम यथाप्रसंग इस प्रकरण में यथोपलब्ध श्री दादूजी महाराज की साखी, शबद तथा श्री सुन्दरदासजी की साषी भी प्रत्येक छन्द के साथ प्रस्तुत करेंगे । 
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*= सवईया =* 
*श्रवण हु देषि सुनै पुनि नैंनहु,*
*जिह्वा सूंघि नासिका बोल ।* 
*गुदा खाइ इन्द्रिय जल पीवै,*
*बिन ही हाथ सुमेर हि तोल ॥*
*ऊँचे पाइ मूंड नीचे कौं,*
*बिचरत तीनि लोक मैं डोल ।* 
*सुन्दरदास कहै सुनि ज्ञानी,*
*भली भाँति या अर्थ हि खोल ॥१॥* 
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*= हस्तलिखित उभय टीका =* 
*१ ली टीका-*
(यह टीका सांकेतिक है) श्रवण = सुरत । नैंन = निरत । सूंघि = रामरस । बोल = जाप । गुदा खाय = अपां पोंन । इन्द्री जल पीतै = विषै जल पीवै । हाथ = हेत । सुमेर = अहंकार । ऊंचो पाय = ऊंचो ब्रह्म पायो । मूंड नीचे = तब सब को मस्तक नम्र भयो ।
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*२ री टीका -* 
“श्रवण सुणनों नाम सुरति सों शुभाशुभ विचार बांरबार अवलोकन करणौ सोई देषणौं । निरति सौं सर्वकार्य अकार्य का निरणाँ करणां सोई सुणनों । जिह्वा सौं राम राम रटि करि सुष स्वाद की प्राप्ति सोई सूंघणों । नासिका द्वारि सासोंसास जपधुनि करणीसोई बोलणां । गुदास्थाने आधारचक्र मध्ये अपान वाय कौं थिर करणां सोई खावणां । भजन करि संयमता सों इन्द्रियां का विकार जीतणां सोई इन्द्रिय जल पीवणां । हाथों बिना केवल विवेक सों मेरु नाम अहंकार है ताको तोलणां, जो जितना क दुख होवै सो सर्व एक अहंकार कै आसिरे है, यों बिचार करणां सोई तोलणां । ऊंचे- यों विचार कीयां ऊंचा परमेश्वर सो पाया तव सर्व का मूंड नाम मस्तक नीचे कौं नाम सर्व का मस्तक आपकों नयबा लगि जावै । तब तीन लोक में इच्छाचारी हुवा विचरो, कहीं अटके नहीं । सुन्दरदासजी कहैं हो ज्ञानी पुरुष । याका अर्थ कों भलीभांति करि खोल, नाम बिचारो । सर्व कल्याण साधन सिद्धान्त याही में है” ॥१॥ 
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*पीताम्बरजी की टीका* : “श्रोत्र द्वारा निकसी जो अंतःकरण की वृत्ति । ता वृत्ति का श्रवण करि गुरु के मुख में महाकाव्य के अर्थं कूं ग्रहण करिकै । अंतर्मुख ताते देखैं हिये प्रत्यक् अभिन्न-ब्रह्मस्वरूप कूं साक्षात् अपरोक्ष जाने । नेत्रद्वारा निकसी जो अंतःकरण की वृत्ति, ता वृत्तिरूप चक्षु करि सुने, कहिये ब्रह्म औ आत्मा की एकतारूप महावाक्य के अर्थ कूं ग्रहण करैं । मधुरादिक षट् रसनतें विलक्षण स्वरूपानंद रसकूं आस्वादन करने वाली जो अंतःकरण की वृत्ति । ता वृत्ति रूप जिह्वा करि । अंतःकरणरूप कमल को निर्वासनिकता सुगंधि कूं सूंघैं कहिये अनुभव करै । उपनिषद रूप पुष्पन के ज्ञानरूप मकरंद कूं ग्रहण करने वाली अंतःकरण की वृत्तिरूप नासिका कर बोलै । कहिये मनन करने के वास्तै पूर्व अभ्यास किये शास्त्रन के शब्दन का सूक्ष्म उच्चारण करै । अथवा निदिध्यासन करने के वास्ते - “सोऽहं , ब्रह्मैवाहं, असंशयोऽहं, निष्प्रपच्चोऽहं” इत्यादिक शब्दन का मन में सूक्ष्म जप करै ।” 
बाधित अणुवृत्तियुक्त रागद्वेषादि वासनारूप गुदा करि खाय कहिये प्रारब्धकर्म तें मिले हुवे अनुकूल सुख व दुख का अनुभव करै । भोक्ता, भोग्य औ भोग कूं मिथ्या जानि के जो कामना का जय है तिसरूप लिंग इन्द्रिय करि -
“मैं अकर्ता, अभोक्ता, औ आत्मा हूँ” इस निश्चयरूप जल कूं पीवै । स्थूल औ सूक्ष्म प्रपंच कार्यरूप शिखर वाला मूल अज्ञानरूप जो सुमेर पर्वत है ताकूं हाथ बिन हि तौले । कहिये स्वरूप में विवेचन करिके मिथ्या जानै । 
“मैं सर्वत्र व्यापक हूँ” ऐसा जो अंतःकरण का निश्चय, औ वैराग्य विवेकादि करि ब्रह्मरूप प्रदेश में गमनरूप जो निश्चय है-तिन दोनूं निश्चयरूप पगन कूं ऊँचे कहिये मुख्य राखिकै । ज्ञान हुए पीछे भी व्यवहार काल में बाधित हुआ अहंकार फुरता है । सो सर्व संधाव में मुख्य होने से तिसरूप मुंडी नीचे कूं कहिये अमुख्य राखिके तीनलोक में विचरत डोल । कहिये जहाँ जहाँ गति होवै है तहाँ तहाँ स्वछन्द हुआ विचरै । 
श्री सुन्दरदास जी कहे कि हे ज्ञानी ! इस सवैये के अर्थ कूं सुनि । भले प्रकार करि खोलो । जैसे किसी अनेक पदार्थन सहित ग्रह के द्वार कूं ताला लगा होवै । ताकूं खोलतें वे सर्वपदार्थ प्रगट दृष्टि में आवैं हैं । तैसे याके खोलने से मोक्षोपयोगी पदार्थ दृष्टि आवैंगे । 
या मैं यह रहस्य है - इस पद्य में मुक्त पुरुष के लक्षण कहे हैं । सोही मुमुक्ष के साधन हैं । या तें तिस अर्थ कूं प्रगट करने में मुक्त कूं प्रसन्नता औ मुमुक्ष कूं उक्त साधनों की प्राप्ति में परम लाभ होवैगा ॥१॥ 
स्वयं सुन्दरदासजी के निजरचित ‘साषी ग्रन्थ’ में(२० वाँ अंग) ५० साखियां ही है जो विपर्यय के वर्णन में हैं । हम उपर्युक्त से मिलती विपर्यय की साखी अन्य महात्माओं की वाणियों से भी दे रहे हैं । जिस विपर्यय लिखने वा कहने का प्रमाण अन्यत्र से भी प्राप्त हो और यह ज्ञात हो कि इस ढंग की उक्ति महात्मा जनों में एक प्रथा सी थी । अध्यात्मलोक की बातैं साधारण पुरुषों को अटपटी सी प्रतीत होती हैं । उनके वास्तविक अभिप्राय के जानने पर बड़ा ही आनन्द मिलता है । विपर्यय के समझने के लिये सुन्दरदास जी ने स्वयम् कहा -
“सुन्दर सब उलटी कही, समझै संत सुजांन । 
और न जानैं बापुरे, भरे बहुत अज्ञान” ॥५०॥ 
प्रथम छंद विपर्यय पर साखी में इतना ही आया है -
“नीचे को मूंडी करै, तब ऊँचे कों पाइ” ॥१॥
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श्री दादूजी महाराज की प्रमाण की साखी ~ 
सब घट श्रवणां सुरति सौं, सब घट रसना बैंन ।
सब घट नैंना व्है रहै, दादू विरहा अैंन ॥ 
- श्रीदादूवाणी, ३ / १३५ 
दादू सबै दिसा सौ सरिखा, सब दिसा मुख बैंन । 
सबै दिसा श्रवणहुं सुनैं, सबै दिसा कर नैंन ॥ 
- श्रीदादूवाणी, ४ / २१२ 
(क्रमशः)

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