बुधवार, 9 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)५० =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ५० दिन ३२ =*
*= निज मित्र =*
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दादूजी महाराज का उक्त उपदेश सुनकर अकबर अति प्रसन्न हुआ और बोला स्वामिन् ! आपने मुझे अपना अमूल्य ज्ञानोपदेश देकर कृतार्थ कर दिया है किंतु फिर भी आपसे ज्ञान प्राप्त करने की मेरी इच्छा बढ़ती ही जा रही है, कृपया अब मैं यह पूछ रहा हूँ कि प्राणी को प्रत्येक कार्य में मित्र के परामर्श की आवश्यकता होती है । अतः आपको इस रहस्यमय साधन मार्ग में मित्र की आवश्यकता पड़ी होगी, सो आपका मित्र कौन है ? यह भी आप अवश्य बतावें ।
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अकबर बादशाह का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी अपने मन को मित्र के पास चलने की प्रेरणा करते हुये अपने मित्र का परिचय दे रहे हैं -
पद - "चलो मन म्हारा, जहां मित्र हमारा,
तहँ जामण मरण नहिं जाणिये, नहिं जाणिये ॥टेक॥
मोह न माया मेरा न तेरा, आवागमन नहीं जम फेरा ॥१॥
पिंड न पड़े प्राण नहिं छूटे, काल न लागे आयु न खूटे ॥२॥
अमर लोक तहँ अखिल शरीरा, व्याधि विकार न व्यापे पीरा ॥३॥
रामराज कोई भिड़े न भाजे, सुस्थिर रहणा बैठा छाजे ॥४॥
अलख निरंजन और न कोई, मित्र हमारा दादू सोई ॥५॥
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हे मेरे मन ! वहां चल जहां हमारा मित्र प्रभु है, मैं तुझे बारंबार कहता हूँ, वहां जाने पर जन्म-मरणादि क्लेशों को तो कोई जानता भी नहीं है । वहां मोह, माया, मेरा, तेरा, आना, जाना, यम के द्वारा नरकों में फिरानादि नहीं हैं । शरीर नहीं गिरता, प्राण नहीं निकलते, काल का कुछ भी बल नहीं लगता, आयु समाप्त नहीं होती ।
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वह अमर लोक है, वहां पर सभी शरीरों को रोगादिक विकार अन्य पीड़ा नहीं होती है । उस निरंजन राम के राज्य में न तो कोई युद्ध करता है और न कोई भयभीत होकर दौड़ता है । वहां तो सम्यक् स्थिरतापूर्वक बैठे हुये ही शोभा देते हैं अर्थात् ब्रह्मनिष्ठा ही रहती है । ऐसा अलख निरंजन राम का स्वरूप है, अन्य कोई देश विशेष नहीं है और हमारा परममित्र भी वही है ।
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इतना कहकर दादूजी ने कहा - हमारे मित्र का संक्षिप्त परिचय उक्त ही है, अब तुमको कोई और शंका हो तो पूछ सकते हो । अब तो थोड़ा ही समय शेष रहा है फिर सत्संग का समय समाप्त हो जायगा । तब अकबर ने कहा - स्वामिन् ! आज के उपदेश में मुझे कुछ संशय नहीं रहा है, मैं भली प्रकार समझ गया हूँ ।
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आप जैसे महापुरुषों के सत्संग से प्राणी का परम कल्याण ही होता है, यह तो मुझे प्रत्यक्ष हो रहा है । आपको बारंबार धन्य है, आपके उपकार का बदला तो हम चुकाने में समर्थ हो ही नहीं सकते । आपके तो सदा ऋणी ही रहेंगे । इतना कहकर अकबर ने मस्तक नमाकर प्रणाम किया ।
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अब सत्संग का समय भी समाप्त हो गया था अतः अकबर उठकर चरणों में शिर नमाकर प्रणाम किया और आज्ञा माँगकर बीरबल आदि के साथ अपने वाहन पर बैठकर राजभवन को चला गया फिर सब श्रोतागण भी प्रणाम करके अपने अपने भवनों को चले गये । दादूजी के शिष्य संत भी अपने अपने दैनिक कार्यों में लग गये ।
इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग दिन ३२ विन्दु ५० समाप्तः ।
(क्रमशः)

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