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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*अन्धा तीनि लोक कौं देखै,*
*बहिरा सुनै बहुत विधि नाद ।*
*नकटा वास कमल की लेवै,*
*गूंगा करै बहुत संवाद ॥*
*टूंटा पकरि उठावै पर्वत,*
*पंगुल करै नृत्य अहलाद ।*
*जो कोउ याकौ अर्थ विचारै,*
*सुन्दर सोइ पावै स्वाद ॥२॥*
*हस्त लि. १ ली टीका -*
अंधा = अन्तर्दृष्टी । बहिरा सुनैं = जगत के आकबाक सूं रहित दस प्रकार अनहद सुनै । नकटा = लोकलाज रहित । वास-ब्रह्म सुगंध ले गूंगा - जगत मन सों अबोल । टूंटा = क्रिया रहित । पर्वत = पाप । पंगुल = गतिरहित । नृत्य = ध्यान । अहलाद = हर्ष ॥२॥
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*हस्त लि. २ री टीका -*
अंधा, संसार व्यवहार की तरह सों अन्तर्दृष्टि । सो तीन लोक कौं देषै, यथार्थ जैसे झूंठ सांच, सार असार कौं जाणै, असार त्यागि सार ग्रहण करै । बहिरा-जगत बाद-बिबाद रहित निश्चल चित्त होय अन्तर श्रुति दश प्रकार का अनहद नाद कौं सुनैं । नकटा नाम लोक लाज कुल कांनि रहित निसंक होवै, सो ब्रह्म कमल की बास लेवै, ब्रह्मानन्द रस स्वाद कौं पावै । गूंगा-जगत सबंधी बकबाद सों रहित होय तब बहुत प्रकार को संवाद नाम ब्रह्मनिरुपरण करै । टूंटा-कायक, वायक, मानस तीन स्थान की बिरथा क्रिया रहित । सो पकरि नाम पुरुषार्थ करिके परबत नाम अति भारी पापन को उठावै दूरि करै । पंगुल नाम गुण विकार चपलता रहित । गुणातीत संत । सो निरत नाम अत्यन्त प्रवीणता सौं भगवत ध्यान मैं अत्यन्त आनन्द हरष कौं पावै ॥२॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
“आत्मा हूँ” इस निश्चय करि अहंता और ममतारूप दो नेत्रन के सम्बन्ध तें रहित ज्ञानीरूप जो अंधा । सो जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्तिरूप तीनलोक कूं ब्रह्मचेतन रूप करि प्रकाशै । अथवा ‘लोक’ शब्द का अर्थ प्रकाश होने ते वाह्य सूर्यादिक प्रकाश कूं, और मध्य नेत्रादिक इंद्रियन के प्राश कूं, औ अन्तरवुद्धि रूप प्रकाश कूं, अंतःकरण-बृत्ति-उपहित साक्षिरूप करि देखै । कहिये प्रकाशै है - श्रोत्रेन्द्रिय के सम्बन्ध तें रहित जो ज्ञानीरूप बैरा । सो लौकिक औ शास्त्रीय भेद करि नाना प्रकार के शब्दन का बहुत बिधि नाद सुनै है ।
नासिका इन्द्रिय के सम्बन्ध तें रहित ज्ञानीरूप नकटा सो कमालादिक अनेक पदार्थन की बास लेवै हैं । वाक् इन्द्रिय के सम्बन्ध तें रहित ज्ञानीरूप जो गूंगा, सो नाना प्रकार के लौकिक औ वैदिक शब्दन करि बहुत संवाद करै है ।
हस्त इन्द्रिय के सम्बन्ध तें रहित ज्ञानीरूप जो ठुंठा महान कृत्यरूप पर्वत पकरि के उठावै, कहिये आरम्भ करिके वा की समाप्ति करै है । पादेन्द्रिय के सम्बन्ध तें रहित ज्ञानीरूप जो पंगु, सो यथा पृथवी पर नृत्य, कहिये गमन करि अति अल्हाद कूं पावै है ।
श्री सुन्दरदास जी कहै हैं कि, या सवैये के अर्थ कूं जो कोई मुमुक्ष पुरुष विचारै, सोई जीवन्मुक्तिरूप स्वाद पावै, कहिये श्रेष्ठ सुख का अनुभव करै ॥२॥
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*= श्री सुन्दरदास जी की साखी =*
अन्धा तीनौ लोक कौं, सुंदर देखै नैंन ।
बहिरा अनहद नाद सुंनि, अतिगति पावै चैन ॥२॥
नकटा लेत सुगंध कौं, यह तो उलटी रीत ।
सुन्दर नाचै पंगुला, गूंगा गावै गीत ॥३॥
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*= श्रीदादूवाणी का प्रमाण =*
जे रस भीग निछावर जावै, सुंदरि सहजै संग समाइ ।
अनहद बाजे बाजण लागे, जिह्वा हीणे कीरति गाइ ।
- श्रीदादूवाणी, पद ७१
बिन ही लोचन निरखि नैंन बिन, श्रवण सुनि सोह ।
बिन ही मारग चलै चरण बिन, निहचल बैठा जाई ।
बिन ही पावौं नाचै निस दिन, बिन जिह्वा गुण गावै ॥
- श्रीदादूवाणी, पद २१०
पांगुलो उजावा लाग्यौ ...जिह्वा बिहूणौं गाये ।
- श्रीदादूवाणी, पद २१२ ...
बोलत गूंगे गूंग बुलायै ।
चलते भारी ते बतलाये, अपंग बिचारै सोई चलाये ॥
- श्रीदादूवाणी, २३३
चरण बिन चालिबो, श्रवण बिन सुनिबो, बिन कर बेन बजाइये ।
सबद नहीं जहँ, जीव नहीं तहँ, बिन रसना मुख गाइये ॥
- श्रीदादूवाणी, पद २६८
देखत अंधे अंध भी अंधे ... बोलत गूंगे गूंग भी गूंगे ...
- श्रीदादूवाणी, पद ३०६
दादू बिन रसना जहँ बोलिये, तहँ अंतरजामी आप ।
बिन श्रवणहुँ साँई सुणैं, जे कुछ कीजै जाप ॥२८॥
दादू नैंन बिन देखिबा, अंग बिन पेखिवा,
रसन बिन बोलिवा ब्रह्म सेती ।
श्रवण बिन सुणिबा, चरण बिन चालिबा,
चित्त बिन चित्तवा, सहज ऐती ॥१९४॥
बिन श्रवणहुँ सब कुछ सुणैं, बिन नैंनहुँ सब देखै ।
बिन रसनां मुख सब कुछ बोलै,यहु दादू अचरच पेखै ॥२१४॥
- दादूवाणी, परचै कौ अंग
(क्रमशः)
*बहिरा सुनै बहुत विधि नाद ।*
*नकटा वास कमल की लेवै,*
*गूंगा करै बहुत संवाद ॥*
*टूंटा पकरि उठावै पर्वत,*
*पंगुल करै नृत्य अहलाद ।*
*जो कोउ याकौ अर्थ विचारै,*
*सुन्दर सोइ पावै स्वाद ॥२॥*
*हस्त लि. १ ली टीका -*
अंधा = अन्तर्दृष्टी । बहिरा सुनैं = जगत के आकबाक सूं रहित दस प्रकार अनहद सुनै । नकटा = लोकलाज रहित । वास-ब्रह्म सुगंध ले गूंगा - जगत मन सों अबोल । टूंटा = क्रिया रहित । पर्वत = पाप । पंगुल = गतिरहित । नृत्य = ध्यान । अहलाद = हर्ष ॥२॥
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*हस्त लि. २ री टीका -*
अंधा, संसार व्यवहार की तरह सों अन्तर्दृष्टि । सो तीन लोक कौं देषै, यथार्थ जैसे झूंठ सांच, सार असार कौं जाणै, असार त्यागि सार ग्रहण करै । बहिरा-जगत बाद-बिबाद रहित निश्चल चित्त होय अन्तर श्रुति दश प्रकार का अनहद नाद कौं सुनैं । नकटा नाम लोक लाज कुल कांनि रहित निसंक होवै, सो ब्रह्म कमल की बास लेवै, ब्रह्मानन्द रस स्वाद कौं पावै । गूंगा-जगत सबंधी बकबाद सों रहित होय तब बहुत प्रकार को संवाद नाम ब्रह्मनिरुपरण करै । टूंटा-कायक, वायक, मानस तीन स्थान की बिरथा क्रिया रहित । सो पकरि नाम पुरुषार्थ करिके परबत नाम अति भारी पापन को उठावै दूरि करै । पंगुल नाम गुण विकार चपलता रहित । गुणातीत संत । सो निरत नाम अत्यन्त प्रवीणता सौं भगवत ध्यान मैं अत्यन्त आनन्द हरष कौं पावै ॥२॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
“आत्मा हूँ” इस निश्चय करि अहंता और ममतारूप दो नेत्रन के सम्बन्ध तें रहित ज्ञानीरूप जो अंधा । सो जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्तिरूप तीनलोक कूं ब्रह्मचेतन रूप करि प्रकाशै । अथवा ‘लोक’ शब्द का अर्थ प्रकाश होने ते वाह्य सूर्यादिक प्रकाश कूं, और मध्य नेत्रादिक इंद्रियन के प्राश कूं, औ अन्तरवुद्धि रूप प्रकाश कूं, अंतःकरण-बृत्ति-उपहित साक्षिरूप करि देखै । कहिये प्रकाशै है - श्रोत्रेन्द्रिय के सम्बन्ध तें रहित जो ज्ञानीरूप बैरा । सो लौकिक औ शास्त्रीय भेद करि नाना प्रकार के शब्दन का बहुत बिधि नाद सुनै है ।
नासिका इन्द्रिय के सम्बन्ध तें रहित ज्ञानीरूप नकटा सो कमालादिक अनेक पदार्थन की बास लेवै हैं । वाक् इन्द्रिय के सम्बन्ध तें रहित ज्ञानीरूप जो गूंगा, सो नाना प्रकार के लौकिक औ वैदिक शब्दन करि बहुत संवाद करै है ।
हस्त इन्द्रिय के सम्बन्ध तें रहित ज्ञानीरूप जो ठुंठा महान कृत्यरूप पर्वत पकरि के उठावै, कहिये आरम्भ करिके वा की समाप्ति करै है । पादेन्द्रिय के सम्बन्ध तें रहित ज्ञानीरूप जो पंगु, सो यथा पृथवी पर नृत्य, कहिये गमन करि अति अल्हाद कूं पावै है ।
श्री सुन्दरदास जी कहै हैं कि, या सवैये के अर्थ कूं जो कोई मुमुक्ष पुरुष विचारै, सोई जीवन्मुक्तिरूप स्वाद पावै, कहिये श्रेष्ठ सुख का अनुभव करै ॥२॥
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*= श्री सुन्दरदास जी की साखी =*
अन्धा तीनौ लोक कौं, सुंदर देखै नैंन ।
बहिरा अनहद नाद सुंनि, अतिगति पावै चैन ॥२॥
नकटा लेत सुगंध कौं, यह तो उलटी रीत ।
सुन्दर नाचै पंगुला, गूंगा गावै गीत ॥३॥
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*= श्रीदादूवाणी का प्रमाण =*
जे रस भीग निछावर जावै, सुंदरि सहजै संग समाइ ।
अनहद बाजे बाजण लागे, जिह्वा हीणे कीरति गाइ ।
- श्रीदादूवाणी, पद ७१
बिन ही लोचन निरखि नैंन बिन, श्रवण सुनि सोह ।
बिन ही मारग चलै चरण बिन, निहचल बैठा जाई ।
बिन ही पावौं नाचै निस दिन, बिन जिह्वा गुण गावै ॥
- श्रीदादूवाणी, पद २१०
पांगुलो उजावा लाग्यौ ...जिह्वा बिहूणौं गाये ।
- श्रीदादूवाणी, पद २१२ ...
बोलत गूंगे गूंग बुलायै ।
चलते भारी ते बतलाये, अपंग बिचारै सोई चलाये ॥
- श्रीदादूवाणी, २३३
चरण बिन चालिबो, श्रवण बिन सुनिबो, बिन कर बेन बजाइये ।
सबद नहीं जहँ, जीव नहीं तहँ, बिन रसना मुख गाइये ॥
- श्रीदादूवाणी, पद २६८
देखत अंधे अंध भी अंधे ... बोलत गूंगे गूंग भी गूंगे ...
- श्रीदादूवाणी, पद ३०६
दादू बिन रसना जहँ बोलिये, तहँ अंतरजामी आप ।
बिन श्रवणहुँ साँई सुणैं, जे कुछ कीजै जाप ॥२८॥
दादू नैंन बिन देखिबा, अंग बिन पेखिवा,
रसन बिन बोलिवा ब्रह्म सेती ।
श्रवण बिन सुणिबा, चरण बिन चालिबा,
चित्त बिन चित्तवा, सहज ऐती ॥१९४॥
बिन श्रवणहुँ सब कुछ सुणैं, बिन नैंनहुँ सब देखै ।
बिन रसनां मुख सब कुछ बोलै,यहु दादू अचरच पेखै ॥२१४॥
- दादूवाणी, परचै कौ अंग
(क्रमशः)
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