बुधवार, 9 दिसंबर 2015

पद. ४१७

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४१७. वीर विक्रम ताल ~
कतहूँ रहे हो विदेश, हरि नहिं आये हो । 
जन्म सिरानों जाइ, पीव नहिं पाये हो ॥ टेक ॥ 
विपति हमारी जाइ, हरि सौं को कहे हो । 
तुम्ह बिन नाथ अनाथ, विरहनि क्यों रहे हो ॥ १ ॥ 
पीव के विरह वियोग, तन की सुधि नहीं हो । 
तलफि तलफि जीव जाइ, मृतक ह्वै रही हो ॥ २ ॥ 
दुखित भई हम नारि, कब हरि आवे हो । 
तुम्ह बिन प्राण अधार, जीव दुख पावे हो ॥ ३ ॥ 
प्रगटहु दीनदयाल, विलम्ब न कीजिये हो । 
दादू दुखी बेहाल, दरसन दीजिये हो ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर से विनती कर रहे हैं कि हे हरि ! हमारे स्वामी आप कहाँ विदेश में रह गये ? अभी तक भी हमें दर्शन नहीं हो रहे हैं । हे नाथ ! हमारा यह मनुष्य जन्म वृथा ही जा रहा है । हे प्रीतम ! आप अभी तक हमको प्राप्त नहीं हुए हो । हे संतों ! हमारी विपत्ति हरि से जाकर अब कौन कहै कि हे नाथ ! आपके दर्शन किये बिना आपके विरहीजन भक्त अनाथ हो रहे हैं । विरहीजन आपके बिना इस शरीर में कैसे रहें ? हे प्रीतम ! आपके विरह रूप वियोग से तन की सुध - बुध भी भूल रहे हैं और तड़फ - तड़फ करके जीव, शरीर से जाने को मृतक तुल्य हो रहा है । हम विरहीजन नारी अति दुःखी हो रही हैं । हे हरि ! आप हमारे हृदय रूपी घर में कब आवोगे ? हे प्राणाधार स्वामी ! आपके बिना इस शरीर में जीव अत्यन्त दुःख पा रहा है । हे दीन - दयाल ! अब प्रगट होकर दर्शन दीजिए, इसमें विलम्ब नहीं करना । हम विरहीजन आपके बिना बेहाल दुःखी हो रहे हैं । आप अपना दर्शन दीजिए । 

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