रविवार, 20 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)५३ =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
.
*= विन्दु ५३ दिन ३५ =*
*= जीव, ब्रह्म संबन्धी विचार व ब्रह्म प्राप्ति का साधन =*
.
३५वें दिन सूर्योदय होने पर अकबर बादशाह सत्संग के लिये दादूजी के पास बाग में आया और प्रणाम करके सन्मुख बैठ गया फिर कुछ विचार करके बोला स्वामिन् ! संपूर्ण प्राणी सुख चाहते हैं, दुःख कोई भी नहीं चाहता फिर भी दुःख क्यों आ जाते हैं ? यह कृपा कर मुझे बतावें ।
.
अकबर का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी ने कहा - दुःख - सुख प्राणी के कर्मानुसार ही आते हैं, उनके आने में दूसरा हेतु नहीं है । जैसे -
"दादू राहु गिले ज्यूं चंद को, गहण गिले ज्यूं सूर ।
कर्म गिले यूं जीव को, नख शिख लागे पूर ॥"
चन्द्र, सूर्य के ग्रहण का दुःख लगा है उसमें चन्द्र, सूर्य ही कारण हैं, अन्य कोई भी नहीं है । अमृत पान के समय देव पंक्ति में देवरूप बनाकर बैठे हुये असुर को चन्द्र, सूर्य ने ही संकेत द्वारा बताया था, इससे चन्द्र, सूर्य को ही ग्रहण का दुःख लगा, अन्य किसी भी देवता को नहीं लगा । यह कथा प्रसिद्ध है । इसी प्रकार जीव अपने चरण के नख से लेकर शिखा पर्यन्त शरीर के किसी भी अंग से कुकर्म करता है, उस कुकर्म का फल उसके उसी अंग को भोगना पड़ता है । अतः जीव के दुःख के कारण उसी के कुकर्म हैं, अन्य कोई भी नहीं है ।
.
फिर अकबर ने पूछा - भगवन् ! दुःख नष्ट होकर जीव को परमसुख कब होता है ? दादूजी ने कहा -
"चंद गिले जब राहु को, गहण गिले जब सूर ।
जीव गिले जब कर्म को, राम रह्या भर पूर ॥"
जैस चन्द्रमा अपना तेज बढ़ाकर राहु को आच्छादित करने वाली शक्ति को नष्ट कर देता है और सूर्य अपना तेज बढ़ाकर केतु की शक्ति नष्ट कर देता है, वैसे ही जीव जब ब्रह्मज्ञान द्वारा संपूर्ण संचित कर्मों को नष्ट कर देता है, और कर्मादि आत्मा के नहीं मानता तब उसे सब में रमने वाला सुखस्वरूप राम ही सर्व विश्व में परिपूर्णरूप से भासता है । उस सुख स्वरूप राम का साक्षात्कार करने से दुःख नष्ट होकर परमसुख प्राप्त होता है । शरीर को प्रारब्ध जन्य दुःख होता है किन्तु वह ज्ञानी शरीर को अपना स्वरूप नहीं मानता, आत्मा को ही अपना स्वरूप मानता है । इससे उसे नित्य सुख का ही अनुभव होता है ।
.
फिर अकबर ने पूछा - जीव किसे कहते हैं और ब्रह्म किसे कहते हैं ? यह भी आप मुझे सम्यक समझा दीजिये । उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी महाराज बोले -
"कर्मों के वश जीव है, कर्म रहित सो ब्रह्म ।
जहँ आतम तहँ परमात्मा, दादू भागा भर्म ॥"
जब तक अज्ञान द्वारा कर्मों के अधीन रहता है, तब तक ही जीव कहलाता है । जब ब्रह्म ज्ञान द्वारा कर्मों को नष्ट करदेता है, तब वही अपने को ब्रह्म रूप अनुभव करता है । जिस निर्विकल्प स्थिति में निर्लेप आत्मा का साक्षात्कार होता है, उस स्थिति में ही परमात्मा ब्रह्म का साक्षात्कार होता है । अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है, जब आत्मा परमात्मा का अभेद ज्ञान हो जाता है तब सांसारिक संपूर्ण भ्रम नष्ट हो जाते हैं । अभेद ज्ञान से पूर्व ही भ्रम रहते हैं, अभेद ज्ञान होने पर नहीं रहते, यह ज्ञानियों को अपरोक्ष है ।
.
ज्ञानीजन सदा ही कहते रहते हैं -
"काचा उछले उफणे, काया हाँडी मांहिं ।
दादू पाका मिल रहै, जीव ब्रह्म दो नांहिं ॥"
जैसे खिचड़ी बनाने के लिये पात्र अग्नि पर रक्खा जाता है, तब अन्न के दाणे जब तक कच्चे रहते हैं तब तक उछल कर ऊपर आते हैं तथा तेज आँच से पानी के साथ बाहर आते हैं किन्तु सीझने पर पर तो सब मिलकर एक रूप ही हो जाते हैं । उछलना उफनना मिट जाता है, वैसे ही जब तक ब्रह्मज्ञान रूप अग्नि की आँच नहीं लगती तब तक कच्चा रहता है और उस कच्ची अवस्था में अर्थात् अज्ञान दशा में उच्च लोकों में जाना रूप उछलना और जीवत्व अहंकार रूप उफनना रहता है किन्तु ब्रह्म ज्ञान रूप अग्नि का विचाररूप ताप लगता है, तब तो ज्ञान निष्ठा रूप परिपाकावस्था को प्राप्त हो जाता है, उस समय उक्त उछलना और उफनना मिटकर जीव ब्रह्म एक ही हो जाते हैं, दो नहीं रहते हैं, यह सत्य है ।
.
फिर अकबर ने पूछा -
भगवन् ! जीव को ब्रह्म के समान बनाने वाला ज्ञान कैसे होता है ? उसका मुख्य साधन क्या है ? यह भी कृपा करके बताइये । अकबर का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी महाराज बोले -
"जीव ब्रह्म सेवा करे, ब्रह्म बराबर होय ।
दादू जाणे ब्रह्म को, ब्रह्म सरीखा सोय ॥"
जीव परब्रह्म की भक्ति करता है, तब उसका अंतःकरण शुद्ध और स्थिर होता जाता है । शुद्ध और स्थिर हो जाने पर गुरु के उपदेश द्वारा जीव को ब्रह्म के बराबर बनाने वाला ब्रह्मज्ञान ह्रदय में उत्पन्न हो जाता है, उस ज्ञान के द्वारा ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को जानकर वह ज्ञानी जीव ब्रह्म के समान हो जाता है, ब्रह्म से भिन्न नहीं रहता । भिन्न था भी नहीं, भ्रम से ही भासता था ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें