रविवार, 20 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=७)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*कमल मांहिं तें पानी उपज्यौ,*
*पानी मांहि तें उपज्यौ सूर ।*
*सूर मांहि सीतलता उपजी,*
*सीतलता मैं सुख भरपूर ॥*
*ता सुख कौ क्षय होइ न कबहूं,*
*सदा एकरस निकट न दूर ।*
*सुन्दर कहै सत्य यह यौं हीं,*
*या मैं रती न जानहुं कूर ॥७॥*
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*- ह० लि० १ टीका -*
कमल = हृदय । पानी - प्रेम । सूर = ज्ञान(प्रेम से ज्ञान उपजा) । सूर = ज्ञान से ब्रह्मानन्द शांति उपजी ॥७॥ 
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*- ह० लि० २ टीका -*
कमल नाम हृदा कमल तामें ऊजल संस्कार करि पाणी नाम प्रेम उपज्यौ । पाणी नाम प्रेम सहित भक्ति तामें सूर नाम सूररूप सर्व अज्ञान नाशक ज्ञान प्रकाश हुवो । अर्थात्, ज्ञान उत्पत्ति का साधक प्रेमा भक्ति ही मुख्य है । अवर गौण है । वा सूररूप ज्ञान प्रकाश मैं सीतलता नाम सर्वताप - रहित - ब्रह्मानन्द - स्वरूप की प्राप्ति से शांति उपजी । 
ता शांति रूपी सीतलता में वाह्यभ्यंतर निर्विकार भरपूर नाम परिपूर्ण सुख रह्यौ है । 
वा ब्रह्मानन्द प्राप्ति के सुख को नाश किसी काल में भी नहीं होवै । वो सुख कैसाक है ? जो सदाकाल एकरस परिणामरहित अविनाशी है । पुनः कैसाक है ? नैड़ा न दूर सर्वत्र वोही है । 
या मैं वेद - पुराण श्रुति स्मृति संत साधु सर्व प्रमाण हैं किंचित् मात्र भी कूर नाम मिथ्या मति मानौं । तथा “अक्षयानन्दम्” श्रुतेः ॥७॥ 
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*- पीताम्बरी टीका -*
च्यारि साधनरूप पांखुरी सहित अंतःकरणरूप कमल मांहि ते ‘तत्तवं पद के अर्थ के शोधनरूप शुद्धतावाला, श्रवणरूप वेगवाला, मनरूप लहरी-वाला, औ असंभावना सहित, विपरीत भावनावाला, मल का नाश करने वाला निदिध्यासनरूप पानी उपज्यो, कहिये उत्पन्न भया । 
तिस निदिध्यासनरूप पानी मांहि ते स्व-स्वरूप के अनुभवरूप सूर, उपज्यौ, कहिये सूर्य उत्पन्न भयो । तिस ज्ञान रूप सूर(सूर्य) मांहि ते कार्य सहित अविद्या की निवृतिरूप शीतलता उपजी । 
औ शीतलता में सुख भरपूर, कहिये तिसतें परिपूर्ण ब्रह्मानंद सुख की प्राप्ति होवै है । ता ब्रह्मरूप नित्य औ निरतिशय सुख को क्षय कबहूं न होइ, कहिये तिस सुख का किसी काल में नाश नहीं होवै । 
काहेते ? यह ब्रह्मसुख सदा एकरस है । औ सर्वकाल अपना आप है । तातैं निकट कहिये नजदीक, औ न दूर कहिये देशकाल का अन्तरायवाला नहीं है । 
*सुन्दरदास जी* कहते हैं कि यह वार्ता यूं ही कहिये उक्तरीति में सत्य है । या रति कहिये रंच मात्र भी कूर कहिये असत्य न जानहुं ॥७॥ 
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*- सुन्दरदासजी की साषी -*
“कमल मांहिं पाणी भयौ पांनी मांहिं भांन । 
भांन मांहिं शशि मिल गयौ, सुंदर उलटौ ज्ञान” ॥९॥ 
(क्रमशः)

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