गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

= ११४ =


卐 सत्यराम सा 卐
मुझ भावै सो मैं किया, तुझ भावै सो नांहि ।
दादू गुनहगार है, मैं देख्या मन मांहि ॥ 
खुशी तुम्हारी त्यों करो, हम तो मानी हार ।
भावै बन्दा बख्शिये, भावै गह कर मार ॥ 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
समर्पण का अर्थ है जो मिलेगा उसमे तृप्त, संतुष्ट।
जो नही मिलेगा उसके न मिलने मे ही हित होगा।
मिलेगा तो परमात्मा की इच्छा है तो जरुर हित होगा; नहीं मिलेगा तो भी परमात्मा की इच्छा कि न मिलने मे हित होगा।
सफलता हो कि असफलता, सम्मान हो कि अपमान
भीतर की प्रार्थना और भीतर का अनुग्रह भाव सतत एक-सा रहेगा।
एक ही प्रार्थना करने जैसी है कि हे परमात्मा ऐसी प्रार्थना करनी आ जाए जिसमे कोई मांग न हो, आकांक्षा न हो।
बिना किसी आकांक्षा के चुपचाप जीवन जिये चला जाए मनुष्य।
सभी नदियां अंततः सागर तक पहुंच जाती हैँ।
मनुष्य यदि आकांक्षा न करे तो परमात्मा से मिलना सुनिश्चित है।
परमात्मा मिला ही हुआ है, आकांक्षा गिर जाए तो अनुभव मे आ जाए।
मनुष्य आकांक्षाओँ मे इतना उलझा है, इतना व्यस्त है कि उसे देखे कैसे जो मौजूद ही है।
परमात्मा मनुष्य का स्वभाव है।
उसे पाना नहीं है।
मनुष्य शाश्वत नीड़ बनाने मे लग जाता है वहीँ भूल हो जाती है।
जीवन एक सरित प्रवाह है।
लेकिन मनुष्य आसक्त हो जाता है, जैसे यहां सदा रहना है।
यहां कुछ भी सदा रहने को नहीं है। सब क्षण-भंगुर है।
शाश्वत नीड़ केवल वो परमात्मा ही है।

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