शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

= ९८ =

卐 सत्यराम सा 卐
मन मैला मन ही सौं धोइ, उनमनि लागै निर्मल होइ ॥ टेक ॥
मन ही उपजै विषय विकार, मन ही निर्मल त्रिभुवन सार ॥ १ ॥
मन ही दुविधा नाना भेद, मन ही समझै द्वै पख छेद ॥ २ ॥
मन ही चंचल चहुँ दिशि जाइ, मन ही निश्चल रह्या समाइ ॥ ३ ॥
मन ही उपजै अग्नि शरीर, मन ही शीतल निर्मल नीर ॥ ४ ॥
मन उपदेश मनही समझाइ, दादू यहु मन उनमनि लाइ ॥ ५ ॥
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साभार ~ सुधि शुक्ला ~ !! श्री गुरुभ्यो नमः !! 
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“भगवान् !” - {२} -
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नारायण ! संवित् का पता कहाँ लगता है ? भगवान् भाष्यकार आचार्य सर्वज्ञ शङ्करभगवत्पाद् स्वामी कहते हैं कि जहाँ एकान्त में योगियों का समुदाय है, वहीं संवित् का साक्षात्कार संभव है । "एकान्ते योगिवृन्दैः" में एकान्त के साथ ही योगिवृन्द भी कहा है । शैव धर्म में एकान्त वह है जहाँ एक विचार के पुरुषों को छोड़कर दूसरे विचार के पुरुष न होवें । एक ही विचार के पुरुष जहाँ हों, वही सच्चा एकान्त है, न कि जहाँ अपने सिवाय दूसरा कोई हो ही नहीं । क्योंकि वे लोग आपस में एक दूसरे को उद्देश्य की ओर आगे बढ़ाते हैं । "अन्योन्यं तत्प्रबोधनम्" कह कर पञ्चदशीकार श्री विद्यारण्य स्वामी जी ने यही कहा है । ऐसे लोग अगर मन से चिन्तन करेंगे, तो शिव तत्त्व का चिन्तन करेंगे । इसलिये उन पुरुषों का मानसिक स्पन्दन एक दूसरे को मदद करने वाला बनेगा । बड़े शहरों में किसी आश्रम से बाहर निकलते ही चलचित्र के ज्ञापन पत्र अर्थात् पोस्टर दिखाई देंगे । अब तो चलध्वनि के सहारे आश्रमों में भी सड़क में घूमने वालों की कृपा से चलचित्र का संगीत पहुँचने लग गया है । चारों तरफ के वातावरण में जो मानस स्पन्द चिन्तनों से बनेंगे वे अपने मन पर भी हावी होंगे ही । यह अनुभव प्रायः अनेक बार होता है । बड़े शहरों से किसी एकान्त, सुन्दर तीर्थस्थलों में जाने पर स्वभावतः वृत्तियों का विक्षेप चला जाता है । एक बार हम किसी एकान्त स्थल में रह रहे थे । हमारे साथ हमारे एक अच्छे मित्र भी थे । हम दो ही वहाँ थे । वहाँ हमने समाचार पत्र बाँचना बन्द कर रखा था । इसी बीच दिल्ली में कई काण्ड हो गये । एक महीने के बाद निवास काल के अन्त में हमारे मित्र कहते थे कि "हम इस समय तक दुनिया से बाहर रह रहे हैं ।" हमने कहा कि दोनों समय बढ़िया दाल भात खाते हैं, दूध खूब पीते हैं, आनन्द से वेदमन्त्रों का स्वाध्याय एवं शिव चिन्तन करते हैं। फिर दुनिया से बाहिर कैसे हो गये ? वे कहने लगे कि वापिस जोधपुर पहुँचने ही महीने भर के अखबार इकट्ठे देखने पड़ेंगे कि इस बीच आखिर हुआ क्या ? वैसे इतना तो निश्चित है कि हम एक महीने तक बड़े आनन्द में थे । यह वातावरण का प्रभाव है । जोधपुर में रहेंगे तो यही चिन्ता करते रहेंगे कि कहाँ क्या - क्या हो रहा है ? 

नारायण ! एक विचारधारा के लोग होंगे तो आपस में बातचीत में भी तत्त्व का ही कथन चलेगा । यह स्वाभाविक है कि मन में जैसा चिन्तन चलता है, वैसा ही मुँह से वचन भी निकलता है । जो पुरुष जिस क्षेत्र की रुचि का होगा, थोड़ी देर तक अन्य क्षेत्र की वार्ता के बाद फिर उसी क्षेत्र की बात करने लगेगा । जो खायेंगे, मुँह से उसकी ही गंध निकलेगी । लहसुन प्याज आदि खायेंगे तो उसकी ही गंध मुँह से निकलेगी और कस्तुरी इलायची खायेंगे तो वैसी ही गन्ध निकलेगी । इसी प्रकार जो निरन्तर अशिव – विषय का चिन्तन करेंगे, उनकी बातचीच में अशिव विषय की वार्ता ही प्रधान रूप से निकलेगी।

नारायण ! जैसा भी साधक हो, और वह जितना भी एक ही विषय का चिन्तन करे, यह स्वाभाविक है कि बीच - बीच में मन इधर उधर चला जाये, चित्त स्वभाव से ही चंचल है और वह प्रभु की असीम दया है कि उसने चित्त को चंचल बनाया । सामान्य लोग कहते है कि यदि चित्त चंचल न होता तो बड़ा अच्छा हो जाता, पर हम कहते हैं कि चित्त चंचल न होता तो बड़ी कठिनाई हो जाती, एवं मोक्ष तो असंभव ही हो जाता । अनादि काल से आज तक चित्त अनात्मविषयों में लगा । अब अगर चित्त चंचल न होता तो विषयों से उसे निकालना असंभव हो जाता । अनन्त काल तक अशिव से धीरे - धीरे निकालने का प्रयत्न करते, तब कहीं वहाँ से अनन्त काल से फँसा हुआ चित्त निकलता । लेकिन शिवदया से चित्त चंचल है । इसलिये चाहे अरबों सालों से अशिव विषयों में लगा हो, स्वाभाविक चंचलता के कारण झट ही वहाँ से हटकर परमशिव में लग जाता है । परमात्मा की सृष्टि में कहीं भी दोष नहीं है । सभी कुछ हमारे कल्याण के लिये ही है । इसी चंचलता के कारण शिव के चिन्तन में लगा हुआ मन कभी - कभी पुनः अशिव विषयों की ओर भी चला जायेगा । जब एक साधक का चित्त अशिव में गया तब दूसरे ने उसे पुनः शिव बोध से जगा कर उसका प्रबोधन किया एवं जब दूसरे का चित्त गया तब प्रथम ने उसका प्रबोधन किया । 

नारायण ! हमारे अतिधन्य पुराणों की कथाओं में बार - बार यही देखने को मिलता है । कहीं देवर्षि नारद जी वक्ता है तो सनत्कुमार श्रोता, कहीं सनत्कुमार जी वक्ता हैं तो नारद श्रोता । आजकल के ऐतिहासिक माथा - पच्ची करते हैं कि कौन पहले और कौन पीछे हुआ । व्यासम्प्रदाय वेदान्ती था । इसलिये यह पहले - पीछे का विचार उनकी समझ में व्यर्थ रहता था । वेदान्ती सिद्धान्त कहता है कि श्रोता वक्ता दोनों साथ - साथ पैदा होते हैं । वेदान्त की विचारधारा बड़ी विचित्र है । बाप किस दिन पैदा हुआ, उसको जानने के लिये वह पहले बेटे के जन्म की तिथि पूछता है । बेटा सन्1922 में पैदा हुआ था तो वेदान्त सिद्धान्त में उसी दिन बाप भी पैदा हुआ था । लोगों को यह सुन कर चक्कर आता है । पर वस्तुस्थिति यही है कि जिस दिन तक बेटा पैदा नहीं हुआ था, बाप भी बाप नहीं बना था । पुत्र की उत्पत्ति होगी, तभी "पिता" नाम होगा । यदि पुत्र उत्पन्न नहीं हो तो चाहे सत्तर साल का बुड्ढा होकर मरे, पिता नहीं बन सकता । इसलिये पुत्रोत्पत्ति के साथ ही पिता की उत्पत्ति सिद्ध हो जाती है । एवमेव शिष्य की उत्पत्ति के साथ ही गुरु की उत्पत्ति है । कितना ही विद्वान् हो, बिना शिष्य के गुरु नहीं हो सकता । जब कोई शिष्य स्वीकारे कि वे हमारे गुरु हैं, तभी वह गुरु बनेगा । वक्ता भी तब वक्ता बनेगा जब कोई श्रोता बने । अगर कोई सुनने वाला ही नहीं तो कोई वक्ता भी नहीं हो सकता । इसी प्रकार सीखना और सिखाना साथ ही साथ चलता है। लोग समझते हैं कि शिक्षक सिखा रहा है एवं शिष्य सीख रहा है । विचार - दृष्टि से देखें तो शिक्षक भी शिष्य से सीख रहा है । जैसे शिक्षक ने एक बात कही । दस की समझ में बात नहीं आई । यह आवश्यक नहीं कि मुँह से कहना पड़े । श्रोता की आँख से भी बात श्रोता की समझ में बैठी नहीं यह बात शिक्षक की समझ में आ ही जाती है । अब शिक्षक ने भी शिष्यों से सीख लिया कि दिल्ली में अमुक शब्द कठिन है, अतः उसका पर्याय यहाँ प्रयोग करके बोले । इस प्रकार ये दोनों भाव युगपत् ही चलते हैं । नारद ने शिक्षा दी तो वे पहले हुए और सनत्कुमार जी ने शिक्षा दी तो वे पहले हुए आदि व्यर्थ बातों से वेदान्ती को कोई मतलब नहीं रहता है । शैव तो यही मानता है कि कभी नारद का मन अनात्मा में गया तो सनत्कुमार जी ने आत्मतत्त्व नारद को सुनाया, और सनत्कुमार का मन विषयों में गया तो नारद जी ने सुना दिया । यही "अन्योन्यं प्रबोधनं" है ।

नारायण ! एक विचारधारा के लोक जहाँ एकत्रित होकर एक ही कर्म करते रहें, वही एकान्त है । भगवान् भाष्यकार शङ्कर स्वामी जी कहते हैं कि संवित् का साक्षात्कार वहीं हो पायेगा जहाँ ऐसा एकान्त होगा । कोठरी बन्द करके बैठने से परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होगा । जिनकी इन्द्रियाँ प्रशान्त हो गई हैं वे ही योगी हैं । उनका ही साथ साधक को लाभप्रद हो सकता है । ऐन्द्रिक चांचल्य से आवृत व्यक्ति कभी भी परमात्मा का दर्शन करने में समर्थ नहीं हो सकता । इन्द्रियों की चंचलता मनुष्य को कभी स्थिर तत्त्व को नहीं देखने देगी । अस्थिर इन्द्रियों से स्थिर शिव का अनुभव असंभव है । भायन्त्र{camera} से जब चित्र लेते हैं तब दो काम करने पड़ते हैं । प्रथम तो जिसका चित्र ले रहे हैं उसे स्थिर रहना पड़ता है और द्वितीय, चित्र लेने वाले को भी स्थिर रहना पड़ता है । जिसका चित्र ले रहे हैं, वह यदि अस्थिर है तो भी चित्र ठीक नहीं आयेगा और जो चित्र ले रहा है वह अस्थिर है तो भी चित्र ठीक नहीं आयेगा । चित्र का विषय भी स्थिर हो और जिसके द्वारा चित्र का ग्रहण होता है वह भी स्थिर हो, तभी चित्र ठीक आयेगा । अथवा जहाँ दोनों में अस्थिरता हो तो वहाँ भी चित्र ठीक आ जायेगा । चल - भायन्त्र moving camera में यही होता है । उसकी पट्टी अर्थात् फिल्म अपने आप चलती रहती है । वह उन पदार्थों का भी चित्र लेता है जो स्वयं चल रहे होते हैं । उसी के आधार पर तो कुसंग के अड्डे{चलचित्र} बनते हैं । वे चित्र इसी प्रकार लिये जाते हैं । वहाँ दोनों अस्थिर हैं । इसी प्रकार से अस्थिर नाम, रूप, कर्म को जानने के लिये अस्थिर मन, इन्द्रियाँ आदि हैं । जगत् के यावत् अस्थिर पदार्थों के ज्ञान के लिये अस्थिर इन्द्रियों की जरूरत है । पर यदि स्थिर पदार्थ संवित् - परमात्मा को जानना है तो इन अस्थिर इन्द्रियों से काम नहीं चलेगा । उसके लिये स्थिर साधन चाहिये । श्रीमद्भगवद्गीताजी के भाष्य में भगवान् शङ्करचार्य जी ने बताया है कि शास्त्र और आचार्य के उपदेश से संस्कृत हुआ स्थिर चित्त ही आत्मज्ञान का साधन बनेगा । नामरूपात्मक जगत् में आगे बढ़ना है तो हमें ये इन्द्रियाँ ही और अधिक तेज करनी पड़ेगी । जैसे किसी कमरे में जाकर आप बैठें , तो सफल व्यापारी देख लेता है कि इसके यहाँ इस मार्के का पर्दा टंगा है । इसका मतलब है कि अगली बार जब यह हमारी दुकान पर आयेगा तो ऐसी ही चीज़ दूँगा । वहाँ जाकर जो चुपचाप नीची नज़र किये बैठा रहे वह सफल व्यापारी नहीं । गये तो चाय पीने थे, लेकिन अपना काम भी कर आये । इसी प्रकार सांसारिक पदार्थों में जो जितना चंचल होगा वह उतना ही सफल होगा । हिन्दी में कहावत है, "उडती चिड़िया पहचानना ।" लेकिन उसके द्वारा ब्रह्मानुसंधान होने वाला नहीं । वह उड़ती चिड़ियों को पहचान सकेगा, स्थिर को नहीं ।

सावशेष...... 
नारायण स्मृतिः

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