गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

= ९४ =


卐 सत्यराम सा 卐
दादू सिद्धि हमारे सांइयां, करामात करतार ।
ऋद्धि हमारे राम है, आगम अलख अपार ॥
गोविन्द गोसांई तुम्हीं आमचे गुरु, तुम्हे अमचां ज्ञान ।
तुम्हे अमचे देव, तुम्हे अमचा ध्यान ॥ 
तुम्हीं आमची पूजा, तुम्हीं आमची पाती ।
तुम्हीं आमचा तीर्थ, तुम्हीं आमची जाती ॥ 
तुम्हीं आमची जीवनी, तुम्हीं आमचा जप ।
तुम्हीं आमचा साधन, तुम्हीं आमचा तप ॥
तुम्हीं आमचा शील, तुम्हीं आमचा संतोष ।
तुम्हीं आमची मुक्ति, तुम्हीं आमचा मोक्ष ॥
तुम्हीं आमचा शिव, तुम्हीं आमची शक्ति ।
तुम्हीं आमचा आगम, तुम्हीं आमची उक्ति ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~ मैंने एक छोटी सी कहानी सुनी है।
दो हजार वर्ष पहले की बात। शत्रुओं ने यूनान के एक नगर पर विजय पायी और निवासियों को नगर छोड़ने की आज्ञा दी। यद्यपि उनकी वीरता से वे प्रभावित थे, बहुत प्रभावित थे। और इसी कारण उन्होंने इतनी सुविधा दी कि वे अपने साथ जो भी और जितना भी ले जा सकें, ले जाएं। पूरा नगर अपना—अपना सामान अपनी पीठ पर लादकर—और उसके लिए रोता हुआ जो नहीं लादा जा सका—दूसरे नगर की ओर चलने लगा। बोझ से सभी की कमर झुकी जा रही थी, पांव लडूखडा रहे थे, प्यास से सूखे कंठ थे, लेकिन प्रत्येक ने अपनी सामर्थ्य से अधिक बोझ लादा हुआ था।
स्वभावत:, तुम्हारे गाव पर शत्रुओं का हमला हो जाए और फिर शत्रु कहें कि जितना तुम अपनी पीठ पर लादकर ले जा सकते हो, बस उतना ले जाओ, तो क्या तुम ऐसा आदमी पा सकोगे जो अपने योग्य लादे? प्रत्येक अपने से ज्यादा लाद लेगा। जिन्होंने कभी सामान नहीं ढोया था, वे भी भारी गट्ठर लादे हुए चल रहे थे। सोना था, चांदी थी, रुपये थे, आभूषण थे, हीरे—जवाहरात थे और हजार तरह की बहुमूल्य चीजें थीं। और रो भी रहे थे, क्योंकि बहुत कुछ छोड़ आना पड़ा था। अपना पूरा घर तो लाद नहीं सकते। बहुत कुछ छोड़ आना पड़ा था। जो छोड़ आए, उसके लिए रो रहे थे; और जो ले आए, उससे दबे जा रहे थे। दोनों में मौत थी। छोड़ आए उसके लिए दुख था, ले आए उससे दुखी हो रहे थे।
उस पूरे यात्री-दल में केवल एक ही पुरुष ऐसा था जिसके पास ले जाने को कोई सामान न था। वह खाली हाथ, सिर ऊपर उठाए छाती सीधी ताने बड़ी शांति से चल रहा था। इतना ही नहीं, उस रोती भीड़ में वह अकेला आदमी था जो गीत गुनगुना रहा था। यह था दार्शनिक बायस।
एक स्त्री ने बड़े करुणापूर्ण स्वर में कहा, ओह! बेचारा कितना गरीब है। इसके पास ले जाने को भी कुछ नहीं?
क्योंकि भिखारी भी लादे हुए थे अपना— अपना गट्ठर। भिखारी भी इतना भिखारी थोड़े ही है कि कुछ भी लादने को न हो। कम होगा लादने को, बहुत कम होगा, लेकिन होगा तो। भिखारियों ने भी अपनी गड़ी संपत्ति खोद ली थी। वे भी उसे लादकर चल रहे थे। यह बायस अकेला आदमी था जिसके पास कुछ भी नहीं था, जो खाली हाथ था, जो मुक्तमना। जो पीछे लौटकर भी नहीं देख रहा था। पीछे कुछ था ही नहीं तो लौटकर क्या देखना। और जिस पर कोई बोझ भी न था।
एक स्त्री दया से बोली, आह, बेचारा कितना गरीब है! इसके पास ले जाने को कुछ भी नहीं? रहस्यवादी बायस बोला, अपने साथ अपनी सारी पूंजी ले चल रहा हूं। मुझ पर दया मत करो, दया योग्य तुम हो।
स्त्री चौंकी, उसने कहा, मुझे कोई पूंजी दिखायी नहीं पड़ती। कैसी पूंजी? किस पूंजी की बात कर रहे हो? होश में हो? कि निर्धन हो और पागल भी हो? बायस खिलखिलाकर हंसने लगा, उसने कहा, मेरा ध्यान मेरी पूंजी है, मेरा आचरण मेरी पूंजी है, मेरी आत्मा की पवित्रता मेरी पूंजी है। उसे शत्रु छीन नहीं सकते हैं। उसे कोई मुझसे अलग नहीं कर सकता। मैंने वही कमाया है जो मुझसे अलग न किया जा सके। तुमने वह कमाया है जो तुमसे कभी भी अलग किया जा सकता है। और जो अलग किया जा सकता है वह मौत के क्षण में यहीं पड़ रह जाएगा। जो अलग किया जा सकता है, उससे शांति नहीं मिलती, सुख नहीं मिलता। जो अलग नहीं किया जा सकता, वही अदृश्य शांति लाता है, सुख लाता है। यह अदृश्य पूंजी ही ऐसी पूंजी है जिसका कोई बोझ नहीं होता। शरीर की पूंजी बोझ देती है, आत्मा की पूंजी कोई बोझ नहीं देती।.....osho

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