गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

= ९५ =


卐 सत्यराम सा 卐
ज्ञानी पंडित बहुत हैं, दाता शूर अनेक ।
दादू भेष अनन्त हैं, लाग रह्या सो एक ॥
कोरा कलश अवाह का, ऊपरि चित्र अनेक ।
क्या कीजे दादू वस्तु बिन, ऐसे नाना भेष ॥ 
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ब्रह्मज्ञानी प्रवाहण 
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अरुण ऋषि पुत्र आकणि(उद्दालक) से आज्ञा लेकर उनका पुत्र श्वेतकेतु देशाटन करने निकला ।
देश - विदेश का भ्रमण करते हुए श्वेतकेतु पंचाल देश के क्षत्रियों की सभा में जा पहुँचे ।
उन दिनों वहाँ पर राजा प्रवाहण का शासन था । यशस्वी राजा अत्यंत ज्ञानी तथा विद्वान पुरुष थे । उन्हें धर्म चर्चा करना परमप्रिय था ।
राजा प्रवाहण अपने परिचित विद्वान क्षत्रियों से धर्म - चर्चा कर रहे थे, तभी वहाँ श्वेतकेतु आ पहुँचे।
राजा प्रवाहण ने उनका आदर -सत्कार किया और पूछा -
"ऋषि कुमार ! क्या आपकी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है ?"
"हाँ राजन् ! मेरी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है ।" श्वेतकेतु ने राजा से कहा ।
राजा प्रवाहण ने पुनः श्वेतकेतु से पूछा - "क्या तुम्हारे आचार्य पिता ने तुम्हें सम्पूर्ण ब्रह्म विद्या का ज्ञान भी करा दिया है ?"
श्वेतकेतु ब्रह्म विद्या से अनभिज्ञ तो न था, किन्तु उसे ब्रह्म विद्या का सम्पूर्ण ज्ञान भी नहीं था । किन्तु अपने अल्प ब्रह्मज्ञान को ही सम्पूर्ण समझकर बोला -
"हाँ राजन् ! मेरे आचार्य पिता ने मुझे सम्पूर्ण ब्रह्म विद्या का ज्ञान प्रदान किया है ।"
इस पर राजा प्रवाहण तनिक सोच में पड़ गये और फिर बोले - "ऋषि कुमार ! मुझे तो लगता है, तुम ब्रह्म ज्ञान की वास्तविकता से अनभिज्ञ हो ।..... यदि तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दो, तो मैं तुम्हें ब्रह्म ज्ञानी मान लूँगा ।"
"ठीक है राजन् !" श्वेतकेतु अभिमान भरे स्वर में बोला - "आप मुझसे प्रश्न पूछिये, मैं आपको उनके उत्तर अवश्य दूंगा।"
"मैं तुमसे मात्र पांच प्रश्न पूछूँगा।"
"पूछिये ।"
"प्रवाहण ने पहला प्रश्न करते हुए कहा -"मेरा पहला प्रश्न है कि प्रजा इस लोक से जाने के बाद कहाँ जाती है ?"
"दूसरा प्रश्न यह है कि वह प्रजा इस लोक में पुनः कैसे आती है ?"
"मेरा तीसरा प्रश्न है ।" राजा ने पूछा -"देवयान तथा पितृयान इन दोनों मार्गों का पारस्परिक वियोग किस स्थान पर होता है ?"
तत्पश्चात राजा प्रवाहण ने चौथा प्रश्न करते हुए पूछा - "यह पितृलोक भरता क्यों नहीं है ?"
"मेरा पाँचवा और अंतिम प्रश्न यह है कि आहुति के हवन कर दिये जाने पर आप सोम, धृतादि रस अर्थात् पुरुषसंज्ञा को कैसे प्राप्त होते हैं ?"
राजा प्रवाहण के सभी प्रश्न ब्रह्म ज्ञान से संबंधित थे और इतने गूढ़ तथा गंभीर थे कि ब्रह्मविद्या से अनभिज्ञ श्वेतकेतु उन्हें देखता रह गया । उसके शब्द मौन थे । श्वेतकेतु को राजा के किसी भी प्रश्न का उत्तर ज्ञात न था । अत: उसने मौन रहना ही उचित समझा । राजा प्रवाहण ने क्षण भर में उसका मान मर्दन कर दिया था ।
श्वेतकेतु को चुप्पी धारण किये देखकर राजा प्रवाहण ने पूछा -"कहिए ऋषि कुमार ! तुम मौन क्यों हो गए हो ? तुम्हें तो समस्त ब्रह्मविद्या का ज्ञान अपने पिता से मिला है, अतः मेरे प्रश्नों के उत्तर दो.... तुम्हारी चुप्पी का क्या कारण है ?"
श्वेतकेतु ने लज्जा से सिर झुका लिया और राजा प्रवाहण से बड़ी कठिनाई से कहा - "हे राजन्! आपने जिस -जिस तरह से प्रश्न मुझसे पूछे हैं, मुझे उनमें से एक भी विषय का ज्ञान नहीं है । आपके प्रश्नों को सुनकर लगता है, मैं सम्पूर्ण ब्रह्मविद्या का ज्ञाता नहीं हूँ । मैं आपके प्रश्नों के उत्तर देने में असमर्थ हूँ ।"
"ऋषि कुमार ! मैंने तो पहले ही तुमसे पूछा था..."
राजा ने कहा - "किन्तु तुमने स्वयं को ब्रह्मज्ञानी कहा ।....खैर पहले ब्रह्मविद्या का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करो । फिर मेरे पास आना । एक बात सदैव याद रखना, आधा - अधूरा ज्ञान मनुष्य को सदैव हास्य का पात्र बनाकर मूढ़ बनाता है ।"
लज्जित श्वेतकेतु पंचाल देश से सीधे अपने पिता उद्दालक के पास आ पहुँचा । आश्रम में पहुँच कर श्वेतकेतु ने अपने पिता से निवेदन भरे स्वर में कहा-
"पिताश्री ! आपने मुझे जितना ज्ञान दिया है, वह अपर्याप्त है। मैं देशाटन करता हुआ पंचाल देश जा पहुँचा । वहाँ के राजा प्रवाहण ने मुझसे पांच प्रश्न पूछे थे, किन्तु मैं उनके किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका । उस समय मैं लज्जा से उनके समक्ष नतमस्तक हो गया था ।"
श्वेतकेतु की बात सुनकर उद्दालक ने पूछा -"राजा प्रवाहण ने तुमसे कौन -से पांच प्रश्न पूछे थे ?"
उत्तर में श्वेतकेतु ने वे पाँचों प्रश्न कह सुनाये ।
उद्दालक भी उन प्रश्नों के उत्तर नहीं जानते थे । वह सोच में पड़ गए, फिर कुछ पलों बाद बोले - "वत्स ! लगता है, राजा प्रवाहण को ब्रह्मविद्या का सम्पूर्ण ज्ञान है। अतः हमें उनके पास शिष्यभाव से जाकर इन प्रश्नों के उत्तर पूछने चाहिए ।"
दोनों पिता - पुत्र राजा प्रवाहण के पास जा पहुँचे । वहाँ पहुँच कर उद्दालक ने विनम्र वाणी में राजा से कहा -
"राजन् ! कृपा कर हमें अपने उन पांच प्रश्नों के उत्तर देकर कृतार्थ करें, जिन्हें आपने मेरे पुत्र श्वेतकेतु से पूछे थे ।"
उद्दालक की बात सुनकर राजा ने उन्हें अतिथियों के रूप में दक्षिणा देकर सन्तुष्ट करना चाहा । किन्तु उद्दालक ने शिष्ट स्वर में कहा -हे राजन् ! मुझे या मेरे पुत्र को दान -दक्षिणा की आवश्यकता नहीं है । हमें आपके उत्तर मात्र की अभिलाषा है ।"
विद्वान ब्राह्मणों को शिष्य की भांति व्यवहार करते देख राजा को बहुत दुख हुआ । वह सोचने लगा -"जब विद्या धन का दान करने वाले ब्राह्मण ही आध्यात्म ज्ञान से शून्य होंगे तब जन सामान्य की दशा क्या होगी ?"
उन्होंने उद्दालक को आश्वासन देते हुए कहा - "हे विप्रवर ! आप निश्चित होकर मेरा आतिथ्य स्वीकार कीजिये । तत्पश्चात मैं आपको उन पांच प्रश्नों के उत्तर अवश्य दूँगा ।"
आतिथ्य सत्कार करने के पश्चात राजा प्रवाहण ने अपने प्रश्नों का उत्तर देना आरम्भ किया ।
हे विप्रवर ! मेरा पहला प्रश्न था -"प्रजाएँ मरकर कहाँ जाती हैं ? "इस प्रश्न का उत्तर है - "मृत्यु के पश्चात जीवात्मा अपने कर्मों तथा ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार पुनः जन्म लेती हैं । अर्थात् उसके शुभाशुभ कर्मों के द्वारा ही निर्धारण होता है उसे कौन से लोक अथवा योनि में पुनः जन्म मिले ।"
हे ऋषिवर! मेरा दूसरा प्रश्न था -"मृत प्रजा पुनः इस लोक में कैसे आती है ?" इस प्रश्न का उत्तर है - "शरीर त्यागनेवाली जीवात्मा के लिए दो मार्ग होते हैं, देवयान तथा पितृयान । जो साधक आध्यात्म विद्या से सम्पन्न होकर साधनायुक्त जीवन व्यतीत कर शरीर का त्याग करते हैं, वे स्वयं प्रकाशरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं। ऐसी जीवात्मा देवयान मार्ग पर जाती हैं। यह मोक्ष मार्ग कहलाता है । जो जीवात्मा सांसारिक संसाधनों में लिप्त रहकर लौकिक हित के कार्य करते हैं, जन - साधारण की सेवा करते हैं, वे पितृयान मार्ग का अनुसरण करते हैं । सकाम कर्म करने के लिये ऐसी जीवात्मा निश्चित अवधि में सांसारिक सुखों को भोगने वाली योनि प्राप्त करती है । इस मार्ग का अनुसरण करने वाली जीवात्मा जन्म-मरण के बंधनो से मुक्त नहीं होती ।"
तत्पश्चात राजा प्रवाहण ने अपने तीसरे प्रश्न का उत्तर देते हुये कहा - "मेरा तीसरा प्रश्न था - "देवयान मार्ग तथा पितृयान मार्ग में परस्पर वियोग कहाँ होता है ?" इसका उत्तर है - "देवयान मार्ग का अनुसरण करने वाली जीवात्मा जन्म-मरण के चक्र से निकलकर मोक्ष पा लेती है, किन्तु पितृयान की अनुगामी जीवात्मा मोक्ष नहीं पाती । यही इन मार्गों का वियोग स्थल है ।
"मेरा चौथा प्रश्न था - पितृ लोक भरता क्यों नहीं ?" तो हे ब्राह्मणों ! इतना तो आप जान ही चुके हैं कि देवयान का अनुगामी पुनः जन्म नहीं लेता, जबकि पितृयान मार्गियों का आवागमन चलता रहता है, जिस कारण परलोक के भरने का प्रश्न ही नहीं उठता, वे तो पुनः जन्म तथा पुनः मरण के चक्र में घूमते रहते हैं ।"
मेरा पांचवां तथा अन्तिम प्रश्न था - "आहुति के हवन कर दिये जाने पर आप सोम तथा घृतादि रस अर्थात् पुरुष संज्ञा को कैसे प्राप्त होते हैं ? तो हे विप्रवरों ! संसार में यज्ञ एक शाश्वत क्रिया है । विद्वान व ज्ञानी पुरुष श्रद्धा की अग्नि जलाकर उसमे सत्य की आहुति देते हैं । ब्रह्मयज्ञ तो प्रतीक मात्र है ।
तदोपरान्त राजा ने कहा - "चार प्रकार के पापों से प्रत्येक जीवात्मा को बचना चाहिए -
पहला पाप - स्वर्ण हो अथवा साधारण वस्तु, किसी भी तरह की चोरी पाप है।
दूसरा पाप - मदिरा पान करना पाप है ।
तीसरा पाप - गुरु पत्नी से दुराचार तथा किसी भी प्रकार का व्यभिचार पाप है ।
चौथा पाप - विद्वान ब्राह्मण हो या सामान्यजन, किसी भी जीव की हत्या पाप है ।
पांचवां पाप - उपरोक्त पापों का आचरण करने वाले मनुष्य के संसर्ग में रहना भी पाप है ।
राजा प्रवाहण से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर दोनो पिता-पुत्र अत्यंत प्रसन्न हुये ।
(छान्दोग्योपनिषद् से)

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