गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

= ९३ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू सब ही मृतक समान हैं, जीया तब ही जाण ।
दादू छांटा अमी का, को साधु बाहे आण ॥
सबही मृतक ह्वै रहे, जीवैं कौन उपाइ ।
दादू अमृत रामरस, को साधू सींचे आइ ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~

मेरे पास सब है, लेकिन शांति नहीं। पूंजी है, पद है, प्रतिष्ठा है, लेकिन सुख नहीं। मैं क्या करूं?
नहीं जी, आपके पास कुछ भी नहीं है। सबकी तो बात ही छोड़ो, कुछ भी नहीं है। क्योंकि सब होता तो शांति होती। सब होता तो सुख होता। वृक्ष तो फल से पहचाना जाता है। फल ही न लगे, उस वृक्ष को वृक्ष कहोगे? सुख का फल न लगे तो वृक्ष झूठा होगा। मान लिया होगा। शांति का जन्म न हो तो संपदा कैसी? फिर तुम विपदा को संपदा कह रहे हो। संपत्ति का अर्थ ही यही होता है कि जिससे सुख पैदा हो, जिसमें सुख के फूल लगें। फल से ही कसौटी है। सुनार सोने को कसता है कसौटी पर, कसौटी पर सोने का चिह्न न बने और वह कहे—सोना तो मेरे पास है लेकिन कसौटी पर चिह्न नहीं बनता, तो तुम क्या कहोगे? पागल है।
शांति तो चिह्न है। सुख चिह्न है कसौटी पर। तुम्हारे पास संपत्ति होती तो जरूर ये चिह्न बनते। तुम न भी बनाना चाहते तो भी बनते। अनायास बनते, अपने आप बनते। तो कहीं भूल हो रही है। तुम कुछ व्यर्थ को सार्थक समझ बैठे हो। तुमने कूड़ा—करकट इकट्ठा कर लिया है और उसे तुम संपत्ति मान रहे हो। मानने से तो संपत्ति संपत्ति नहीं होती। होती हो तो ही होती है। तुम लाख मानो, तुम लाख चेष्टा करो कि रेत से हम निचोड़ लें तेल, नहीं निचोड़ पाओगे। रेत में तेल हो तो निचुड़ आता, रेत में तेल है नहीं।
तुम कहते हो, ‘मेरे पास सब है, लेकिन शांति नहीं।’
तो कुछ भी नहीं है। इस आति को छोड़ो। यह सब होने की भ्रांति तुम्हें अटका रखेगी। यह भ्रांति टूट जाए तो शांति की यात्रा शुरू हो सकती है। शांति की यात्रा में पहला कदम यही है कि अब तक जो भी कदम मैंने उठाये गलत दिशा में उठाये, अब इस दिशा में और कदम नहीं उठाने हैं।
तुम कहते, ‘पूंजी है।
पूंजी की परिभाषा तुम्हें मालूम? पूंजी का अर्थ होता है, जो खोयी न जा सके। जो मिली सो मिली। जो सदा तुम्हारी हो। जो छिन जाए, उसे पूंजी कहते हो? जिसे चोर चुरा ले जाएं, उसे पूंजी कहते हो? जिसका आज मूल्य हो, कल निर्मूल्य हो जाए, उसे पूंजी कहते हो? पूंजी तो वही है जो शाश्वत मूल्य रखती है। पूंजी तो भीतर की होती है, बाहर की नहीं होती। पूंजी तो कुछ बात ऐसी है कि मौत भी उसे नहीं छीन पाती। अग्नि उसे जलाती नहीं, शस्त्र उसे छेदते नहीं। लपटों में तुम्हारा शरीर जल जाएगा, तुम्हारी पूंजी अछूती बची रहेगी। धन पूंजी नहीं है, ध्यान पूंजी है। तुम कहते हो, ‘पद है।’
जानने वालों ने तो परमात्मा को ही पद कहा है, परमपद कहा है। और सब पद तो धोखे हैं। जरा बड़ी कुर्सी पर बैठ गये, कहने लगे, पद है। छोटे बच्चों जैसी बातें हैं। छोटे बच्चे अक्सर खड़े हो जाते हैं बाप के पास, स्कूल पर खड़े हो जाते हैं, कुर्सी पर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं, मैं आपसे बड़ा, मैं तुमसे बड़ा। कुर्सियों पर बैठकर कोई बड़ा होता है! कुर्सियां छिन जाने से कोई छोटा होता है! जो बड़प्पन, जो छोटापन कुर्सियों पर निर्भर हो, वह बडप्पन नहीं, आत्मवचना है। तुम सपने देख रहे हो। पूंजी तो एक है—आत्मा की। और पद एक है—परमात्मा का। और प्रतिष्ठा? उसी पूंजी में, उसी पद में ठहर जाओ तो प्रतिष्ठा है। प्रतिष्ठा शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। उसी में जड़ें जमा लो, कोई हिला न सके वहा से, कोई उपाय न हिला सके, कोई परिस्थिति न हिला सके, तो प्रतिष्ठा।
एक सम्राट ने एक रात अपने नगर का परिभ्रमण करते हुए एक भिखारी को—पूरे चांद की रात थी—एक वृक्ष के नीचे आनंद से अपने भिक्षापात्र को बजाकर और गीत गाते देखा। वह बहुत चकित हुआ। इसके पास कुछ भी न था। किस बात का गीत! और सम्राट के पास सब था और गीत उसके ओंठों पर आते ही नहीं। कब के भूल गए हैं। नाच उसके पैरों में उठता ही नहीं, कब का विस्मरण हो गया है। हृदय सुख गया, रसधार बहती नहीं। इसके पास क्या है जिसके कारण यह गीत गुनगुना रहा है?
सम्राट ने घोड़ा रोक दिया, उसके गीत में कुछ जादू था। उस स्वरलहरी में कुछ मिठास थी जो इस पृथ्वी की नहीं। जो कहीं दूर से आती मालूम होती थी। उसमें एक मस्ती थी, उसके आसपास एक तरंग थी। वह रुक गया। थोड़ी देर को भूल ही गया अपना राजा होना, अपनी चिंताएं, अपनी परेशानियां।
जब गीत रुका तो चौंका। उसने उस भिखारी से पूछा, तेरे पास क्या है जिसके कारण तू गीत गुनगुना रहा है? क्या है तेरे पास जिसके कारण तू चिंतित नहीं है? क्या है तेरे पास जिसके कारण तू मस्त है इस चांद की रात में? क्या है तेरे पास जिसके कारण मैं तेरे प्रति ईर्ष्या से भर गया हूं? तूने मुझे जलन से भर दिया है। बड़े सम्राटों को देखकर भी मेरे भीतर कोई जलन नहीं पैदा होती, क्योंकि सब जो उनके पास है मेरे पास भी है, थोड़ा—बहुत कम—ज्यादा होगा, कुछ फर्क पड़ता नहीं। मगर तेरे पास क्या है कि मैं ठिठक गया हूं? मैं आगे न बढ़ सका।
वह भिखारी हंसने लगा। उसने कहा, दिखा सकूं? ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है। लेकिन गा सकूं? ऐसा मेरे पास बहुत कुछ है। दिखा सकूं? ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है। लेकिन गुनगुना सकु ऐसा मेरे पास बहुत कुछ है। मुझे देखो, पूछो मत। प्रश्न का उत्तर मैं न दे सकूंगा, मेरी आंखों में देखो। सम्राट उससे इतना प्रभावित था कि उसे महल में ले आया। उसे सुला दिया और कहा कि सुबह बात करेंगे।
सुबह जब उठे तो सम्राट ने शिष्टाचारवश उससे पूछा कि रात कैसी बीती? उसने कहा, कुछ आप जैसी, कुछ आपसे बेहतर। सम्राट थोड़ा हैरान हुआ, उसने कहा, मतलब मैं समझा नहीं। कुछ आप जैसी, कुछ आपसे बेहतर—क्या मतलब तुम्हारा? उसने कहा, जब सो गए, जब गहरी नींद में खो गए तो आप जैसी, कोई भेद न रहा। जब तक जागते रहे, हम प्रभु—स्मरण करते रहे, तुम चिंताओं में डूबे रहे होओगे। कुछ आप जैसी, कुछ आपसे बेहतर। नींद में जब पड़ गए गहरी, तो आप जैसी; और जब तक जागते रहे, तब हम प्रभु—स्मरण में डूबे रहे, तुम चिंताओं में डूबे रहे होओगे, व्यर्थ के ठीकरे गिनते रहे होओगे। इसलिए कहता हूं कि कुछ आप जैसी, कुछ आपसे बेहतर।
अगर तुम्हें पूंजी, पद और प्रतिष्ठा की सच में तलाश हो, तो ध्यान खोजो, प्रेम खोजो। प्रेम के सिक्के ही तुम्हारे जीवन को धन से भरेंगे, ध्यान के सिक्के ही तुम्हारे जीवन में सुरभि लाएंगे। और तब शांति अपने आप आती है। जैसे दीए के जलने पर प्रकाश हो जाता है, अंधेरा चला जाता है, ऐसे ध्यान के जलने पर अशांति का अंधेरा अपने से चला जाता है।
तुमने अब तक जो किया है, गलत ही किया है। अभी भी देर नहीं हो गयी है। कुछ किया जा सकता है। एक क्षण में भी क्रांति हो सकती है। मगर पहली बात, इन चीजों को अब तुम पूंजी कहना बंद करो। अगर तुम इनको पूंजी कहे चले गए तो इसी कहने के कारण इन्हीं में ग्रसित रहोगे। इसलिए मैं जोर देकर कह रहा हूं कि इसे अब पद मत कहो, प्रतिष्ठा मत कहो, पूंजी मत कहो; जिससे कुछ भी नहीं मिला, इसे अब तो पूंजी जैसे सुंदर शब्द देने बंद करो।
हम जो कहते हैं, उसका परिणाम होता है। हम जो शब्द देते हैं, उसके कारण हमारे जीवन में धाराएं पैदा होती हैं। अगर तुम इसे पूंजी कहोगे तो पकड़ोगे। तुम अगर कहने लगे, यह सब असार है, कूड़ा—करकट है, तो मुट्ठी खुलने लगेगी। शब्दों का बड़ा बल है। छोटे —छोटे शब्दों के भेद बड़े भेद ले आते हैं।....osho

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