गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=४)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*बूंद हि मांहि समुद्र समानौ,*
*राई मांहिं समांनौ मेर ।*
*पानी मांहिं तुंबिका बूडी,*
*पाहन तिरत न लागी बेर ॥*
*तीनि लोक में भया तमासा,*
*सूरय कियौ सकल अंधेर ।*
*मूरख होइ सु अर्थ हि पावै,*
*सुंदर कहै शब्द मैं फेर ॥४॥*
*ह० लि० १ टीका -* 
बूंद = आत्मा, दूजी काया समुद्र, = परमात्मा दूजो ब्रह्म माया । राई = भक्ति । मेर = मन । पानी = प्रेम । तुंबिका = काया । पाहन = हृदय । तिरो = कोमल हुवो । सूरज = ज्ञान । अंधेर = पदार्थ का अभाव । मूरष = संसार कानी सूं मूर्ख । अर्थ = ब्रह्म ॥४॥ 
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*ह० लि० २ री टीका -* 
बूंद नाम जलबूंद की काया । यद्वा बूंद तुल्य अति लघुजीवात्मा । तामैं अति अपार विस्तीर्ण अति बड़ा समुद्र नाम ब्रह्म सो समाना । भजन ध्यान सों एकता कों प्राप्त हुआ । राई नाम अति सूक्ष्म जो भगवत - भक्ति, तामें अतिविस्तार रूप संकल्पात्मक जो मन, मेर पर्वत सदृश, सो समायो, नाम सर्व संकल्प छोड़िकै भक्ति में अखंड लीन हुवो । 
पानी नाम प्रेम तामें तुंबिका नाम कड़वी सर्व विकारयुक्त महाकटुकरूप काया तूंबड़ी, सो डूबी रोम रोम मैं महाप्रेम सूं मगन होय शुद्ध हुई । पाहन तुल्य अति कठोर जो अभक्त हृदों सो भगवत - प्रेम कों पाय । तिरतां नाम कोमल शुद्ध होतां बार न लागी । जहाँ प्रेम होवैगो तहाँ ही कोमलता होवैगी । 
तीन लोक मैं एक बड़ो तमासो नाम आश्चर्य हुवो, कहा हुवो ? जो सूर्य रूप प्रकाशमान ज्ञान सोही अंधारो कीयो, इह तमासो । अंधारो कहा - ज्ञानरूप प्रकाश नैं विद्यमान संसार को अभाव कियो । 
मूरख होय सो अर्थ नाम याके सिद्धान्त कों पावै । शब्द में फेर नाम कल्याण मारिग मैं अति प्रवीन पुरुष जगत व्यवहार मैं अप्रवर्ती होवै योही फेर ॥४॥ 
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*पीताम्बरी टीका -* 
“भ्रांतिकारि भिन्न भासमान जीवरूपी बूंदहि मांहि ब्रह्मरूप समुद्र सामानो । एकता कूं प्राप्त भयो - मैं ब्रह्म हूँ ऐसी सूक्ष्म वृत्ति रूप रांई मांहि शरीररूप शिखर सहित अज्ञानरूप मेरु(पर्वत) समानो कहिये मिथ्यापने के निश्चयरूप अथवा तीनकाल में अभाव निश्चयरूप बाधको विषय भयो-
पानी संसार समुद्र के चौराशी लक्ष योनिजन्य दुःखरूप पानी मांहि देहादि अभिमानवाली अज्ञानी की बुद्धिरूप तुंबिका जन्मादिक के प्रवाह में डूबी कहिये दब गई । शुद्धस्वरूप के अहंकाररूप जो पाहन कहिये पत्थर है ताका “मैं ब्रह्म हूँ” ऐसा आकार है, औ अज्ञानी कूँ अतिभारी लगै है, सो पूर्वोक्त जल से ऊपर सालिग्राम की न्यांई तिरत बेर न लागी, कहिये जा क्षण में वह शुद्ध अहंकार उदय हुआ, तिसी क्षण में जीवन्मुक्ति की प्राप्ति भई । “अहं ब्रह्मास्मि” निश्चयरूप तत्वज्ञान ने सर्वजगत का अभाव किया । 
ताका तीन लोक में तमासा भया कहिये आश्चर्य भया । या में हेतुयुक्त रहस्य कहैं है - जब ज्ञानरूप सूरज उदय होवै है, तब कारण सहित सर्वजगत(जो अज्ञानी की दृष्टि में प्रत्यक्ष सत्य भासै है औ ज्ञानी की दृष्टि में असत्य भासै हैं, तिस) का अभाव होवै है । सोई सकल अंधेरा कियो ऐसे सिद्ध होवै है । यहाँ श्रीमद्भगवद्गीता का प्रामाण कहै हैं - “जो सर्वभूतन की रात्रिरूप ब्रह्म है ता में ज्ञानी जागै है । औ जिस जगत में भूत(प्राणी)जागते हैं, सो ज्ञानी की रात्रि है१ ।” ऐसे दूसरे अध्याय में कहा कह्या है । 
ज्ञानी संसार ते विमुख होवै है, यातें तिस मार्ग में सो मूरख कहिये है । ऐसा जो होय सु उक्त अर्थ अर्थ कूं पावै । सुन्दरदासजी कहै कि ऐसे शब्द में फेर है, अर्थ में नहीं” ॥४॥
(१. या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । 
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥)
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*श्री सुन्दरदास जी की साषी -*
“समद समानौं बुन्द मैं, राई माहें मेर । 
सुन्दर यह उलटी भई, सूरज कियौ अन्धेर” ॥५॥
(क्रमशः)

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