शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

= ९६ =


卐 सत्यराम सा 卐
दादू मन फकीर जग तैं रह्या, सतगुरु लीया लाइ ।
अहनिश लागा एक सौं, सहज शून्य रस खाइ ॥ 
दादू मन फकीर ऐसैं, भया, सतगुरु के प्रसाद ।
जहाँ का था लागा तहाँ, छूटे वाद विवाद ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~
बायजीद अपने गुरु के पास गया तो कहते हैं, बारह साल तक चुप बैठा रहा। बारह साल लंबा वक्त होता है। तब गुरु ने बायजीद की तरफ देखा और कहा कि अब भाई पूछ ही ले। बायजीद चरणों में झुका, उसने कहा कि अब पूछने की जरूरत न रही। जब पूछने की जरूरत थी, मैंने इसलिए नहीं पूछा कि अभी समय नहीं आया। अब समय आ गया है तो मेरे भीतर साथ ही उत्तर भी आ गया है। अब पूछने की जरूरत न रही, मैं आपका धन्यवाद करता हूं। आपके निकट बैठे—बैठे हो गया। बायजीद के गुरु ने कहा, लेकिन याद रखना, मैंने नहीं किया है। मैं तो सिर्फ बहाना था कि मेरे पास तू बारह साल शांत होकर बैठ सका। शायद अकेला तू नहीं बैठ सकता, अकेले मुश्किल होता बारह साल शांत बैठना! इस आशा में बैठा रहा कि गुरु के पास बैठे हैं, गुरु के सत्संग में बैठे हैं, कुछ होगा, कुछ होगा, कुछ होगा.. हो गया।

तो बायजीद के गुरु ने कहा, मैंने नहीं दिया है, याद रखना। हुआ तुझे ही है, मैं तो सिर्फ एक बहाना था। जिसको रसायनविद कहते हैं, केटेलिटिक एजेंट। उसकी मौजूदगी भर से। कुछ किया नहीं है गुरु ने।

यह छोटी सी कहानी सुनो, चीन की घटना है।

एक बहुत बड़ा झेन गुरु हुआ, लियांग चियाई। वह अपने गुरु युन येन के निर्वाण—दिवस पर बांटने के लिए आश्रम में भोजन तैयार कर रहा था। एक भिक्षु ने लियांग चियाई से पूछा, स्व गुरु युन येन से आपको क्या शिक्षा मिली थी? लियाग चियाई ने कहा, कोई भी नहीं। मैं उनके निकट रहा, पर उन्होंने कभी मुझे कोई शिक्षा नहीं दी। भिक्षु हैरान हुआ। उसने पूछा, तब फिर आप युन येन की स्मृति में यह भोज क्यों दे रहे हैं? क्योंकि ऐसा भोज तो गुरु की स्मृति में ही दिया जाता है। जब उन्होंने कोई शिक्षा ही नहीं दी, तो वे आपके गुरु कैसे हुए? और लियांग चियाई ने कहा, इसीलिए! इसीलिए! खूब हंसने लगा वह।

उसने कहा, मैं युन येन को उनके सदगुणों, उनकी शिक्षाओं और व्यक्तित्व के कारण आदर नहीं करता हूं, मेरा सारा आदर उनके द्वारा सत्य उदघाटित करने के मेरे अनुरोध को अस्वीकार कर देने के कारण है। उन्होंने मुझे सत्य बताने से सदा इंकार किया। जब भी मैंने पूछा, तभी उन्होंने चुप्पी के लिए इशारा किया। और जब भी मैंने कुछ कहा, उन्होंने जल्दी से ओंठ पर अपनी अंगुली रख दी और कहा, चुप रह! ऐसे वर्षों बीते, मुझे कभी कोई शिक्षा न दी—और फिर एक दिन हो गया।

अब मैं उनकी याद करता हूं। इसीलिए याद करता हूं कि उन्होंने मुझे कोई शिक्षा न दी, अगर वह मुझे शिक्षा देते तो शायद जो मेरे भीतर हुआ, वह न हो पाता। उन्होंने बाहर से कुछ भी न दिया। उन्होंने भीतर को मुक्त रखा। वह मुझे बस चुप्पी करवाते रहे—चुप! जब भी मैं रूम तब तब तो मुझे बहुत अखरता था, तब तो बहुत बुरा भी लगता था। दूसरों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। ऐरे—गैरों के उत्तर देते थे, कोई राह चलता आ जाता, उसका उत्तर देते थे। और मैं वर्षों से बैठा चरणों में सेवा कर रहा, और जब भी मैं रूम कहें—बस, चुप! मेरी तरफ ध्यान भी न देते थे। बहुत पीड़ा भी होती थी, अहंकार को चोट भी लगती थी, लेकिन आज मैं जानता हूं—उनकी कृपा अपरंपार थी। इसीलिए यह भोज दे रहा हूं कि वह मेरे गुरु थे। सच्चे गुरु थे। उन्होंने मुझे उत्तर नहीं दिया और सदा मुझे मेरे ऊपर वापस फेंक दिया। सदा धक्का दे दिया मेरे भीतर कि जा वहां। धक्का खाते —खाते एक दिन मैं पहुंच गया। एक दिन भीतर से लपट की तरह उठी बात, सब रोशन हो गया। वह उनकी ही कृपा से हुआ है। उन्होंने मुझे कोई शिक्षा नहीं दी, लेकिन गुरु तो वे मेरे हैं।

अब ध्यान रखना, शिक्षा देने से ही कोई गुरु नहीं होता। सत्य के निकट पहुंचाने से कोई गुरु होता है। और सत्य के निकट कैसे पहुंचोगे? अगर गुरु तुम्हें अपने में उलझा ले तो नहीं पहुंच पाओगे।

इसलिए सदगुरु की सदा चेष्टा होती है कि तुम उसमें न उलझ जाओ। वह तुम्हें धक्के देता रहता है, वह तुम्हें तुम पर फेंकता रहता है।....ओशो

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