शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=५)


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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*मछरी बगुला कौं गहि खायौ,*
*मूसै खायौ कारौ सांप ।* 
*सूवै पकरि बिलइया खाई,*
*ताकें मुये गयौ संताप ॥* 
*बेटी अपनी मा गहि खाई,*
*बेटै अपनौ खायौ बाप ।* 
*सुन्दर कहै सुनहुं रे संतहु,*
*तिनकौं कोउ न लागौ पाप ॥५॥* 

*ह० लि० १ टीका -* 
मछली = मनसा । बगुला - दम्भ । मूसा = मन । कारो सांप = संसै । सुवा = प्राण । बिलाई = दुर्मति । बेटी = बुद्धि । मा = माया । बेटा = ज्ञान । बाप = ईरषा । 
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*ह० लि० २ री टीका -* 
मछरी नाम मनसा ताने बगला नाम ऊपर सों ऊजरों पर मांहिसों मैला ऐसा दम्भ । ताको गहि खायो नाम जीति जमासों उठायो दूरि निवार्यो । मूसो नाम मन तानें सांप नाम संसो सर्प को गरसन करि रह्यो तासों सांप संसे षाया सकल जग । इति । सो संसाररूपी सांप मनरूपी मूसै ने खायो । इहि विपर्यय । मन मूसो कयूं ? 
छानै छानै अनेक मनोरथां फिरि आवै यों मूसो सूनो, सूवो नाम अति चपल प्राणात्मा तानैं पकरि करि अति पुरषार्थ करिकैं बिलाई नाम ईरषा खाई दूरि करी ता बिलाई का नाश हूंवा सर्व संताप गया, परम आनन्द हुआ । 
बेटी नाम निरवासिनी बुद्धि तानैं अपनी मा नाम माया ममता व जासो बुद्धि उपजी वाही माया, मा, वाही कों खाई, नाम वाही माया ममता कों दूरि करी । बेटो नाम ज्ञान जा सरीर में उपज्यो वाही वपु, सरीर कों खायो, फेरि उत्पत्ति होय नहीं, जन्म मरण रहित कीयो । 
कोउ न लागौ पाप-जो माय बाप खायां वा मारयां जो पाप होइ इहां नहीं है । इह विपर्यय शब्द को विचार कीयां अत्यन्त आनन्द पुन्य सुख का दाता है ॥५॥ 
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*पीताम्बरी टीका -* 
निष्काम - उपासनायुक्त बुद्धिरूप मछरी ने अपने विरोधी चित्त के विक्षेपनामक दोषरूप वागले कूं अभ्यास बलतें गहि खायो कहिये नाश कियो । पापरूप वस्त्रन कूं कतरनेवाला शुद्ध मनरूप जो मूसाहै, तिसनें अपने से विरोधी चित्त के मल नामक दोषरूप कारो सांप खायो कहिये नाश कियो ।
सुवे-जाकी विवेकरूप चंचू है । शम औ दमरूप दो पाद हैं । उपरित औ तितिक्षारूप दो पक्ष हैं । श्रद्धा ओ समाधानरूप दो नेत्र हैं । वैराग्यरूप पेट है । औ मुमुक्षतारूप पुच्छ है । ऐसे अन्तःकरण रूप सूवे ने इस लोक औ परलोक की इच्छारूप बिलारी पकरि खाई । कहिये निवृत्ति करी । ताके मुवे सन्ताप गयो कहिये तिस इच्छा के नाश हुवे, ज्ञानके प्रतिबन्धक संसार के क्लेश की निवृत्ति भई ।
बेटी - अन्तःकरण की वृत्तिरूप परिणाम कूं प्राप्त भई जो अविद्या, तिस करि ब्रह्मविद्या की उत्पत्ति होवै है । ऐसे ब्रह्मविद्या की माता अविद्या, औ पुत्री विद्या सिद्ध होवै है । तिस विद्या में अविद्या का नाश होवै है, ऐसी बेटी अपनी मा गहि खा ।
बेटा - ज्ञान हुवे पीछे इच्छानुसार निर्विकल्प अभ्यास करि मन का निग्रह होवै है । तदनन्तर मन की अनंत वासना का नाश होवै है । वासनाक्षयरूप बेटे, मनरूप अपनों बाप खायो । सुन्दरदासजी कहै है - हो सन्तो सुनो ! मछरी ने बागला कूं खायो, मूसे ने कारो सांप खायो, सूवे ने विलारी खाई, बेटी ने अपनी माता खाई, औ बेटे ने अपनी बाप खायो । तांते तिनकूं कोउ पाप न लाग्यौ ॥५॥ 
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*= सुन्दरदासजी की साषी =* 
“मछली बगला कौं ग्रस्यौ, देखहु याके भाग । 
सुन्दर यह उलटी भई, मूसै खायौ काग” ॥६॥ 
(क्रमशः)

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