गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

= ११६ =

卐 सत्यराम सा 卐
पंथ चलैं ते प्राणिया, तेता कुल व्यवहार ।
निर्पख साधु सो सही, जिनके एक अधार ॥ 
दादू पंथों पड़ गये, बपुरे बारह बाट ।
इनके संग न जाइये, उलटा अविगत घाट ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~ सनातन पथ कौन सा है?
लाओत्से कहता है, जिस पथ पर चला जा सके, वह सनातन और अविकारी पथ नहीं है।
दो बातें कहता है। वह सनातन नहीं है। असल में, जिस रास्ते पर भी हम चल सकें, वह हमारा ही बनाया हुआ होगा। हमारा ही बनाया हुआ होगा, इसलिए सनातन नहीं होगा। आदमी का ही निर्मित होगा, इसलिए परमात्मा से निर्मित नहीं होगा। और जो पथ हमने बनाया है, वह सत्य तक कैसे ले जाएगा? क्योंकि अगर हमें सत्य के भवन का पता होता, तो हम ऐसा रास्ता भी बना लेते जो सत्य तक ले जाए।
ध्यान रहे, रास्ता तो तभी बनाया जा सकता है, जब मंजिल पता हो। मुझे आपका घर पता हो, तो मैं वहां तक रास्ता बना लूं। लेकिन यह बड़ी कठिन बात है। अगर मुझे आपका घर पता है, तो मैं बिना रास्ते के ही आपके घर पहुंच गया होऊंगा। नहीं तो फिर मुझे आपके घर का पता कैसे चला है?
इजिप्त के पुराने सूफियों के सूत्रों का एक हिस्सा कहता है कि जब तुम्हें परमात्मा मिलेगा और तुम उसे पहचानोगे, तब तुम जरूर कहोगे कि अरे, तुम्हें तो मैं पहले से ही जानता था! और अगर तुम ऐसा न कह सकोगे, तो तुम परमात्मा को पहचान कैसे सकोगे? रिकग्नीशन इज़ इम्पासिबल। रिकग्नीशन का तो मतलब ही यह होता है। अगर परमात्मा मेरे सामने आए और मैं खड़े होकर उससे पूछूं कि आप कौन हैं? तब तो मैं पहचान न सकूंगा। और अगर मैं देखते ही पहचान गया कि प्रभु आ गए, तो उसका अर्थ है कि मैंने कभी किसी क्षण में, किसी कोने से, किसी द्वार से जाना था; आज पहचाना। यह रिकग्नीशन है। हम जाने को ही पहचान सकते हैं।
अगर आपको पता ही है कि सत्य कहां है, तो आपके लिए रास्ते की जरूरत कहां रही? आप सत्य तक कहीं पहुंच ही गए हैं, जान ही लिया है। तो जिसे पता है वह रास्ता नहीं बनाता। और जिसे पता नहीं है वह रास्ता बनाता है। और जो नहीं जानते, उनके बनाए हुए रास्ते कैसे पहुंचा पाएंगे? वे सनातन पथ नहीं हो सकते।
सनातन पथ कौन सा है?
जो आदमी ने कभी नहीं बनाया। जब आदमी नहीं था, तब भी था। और जब आदमी नहीं होगा, तब भी होगा।
सनातन पथ कौन सा है?
जिसे वेद के ऋषि नहीं बनाते, जिसे बुद्ध नहीं बनाते, जिसे महावीर नहीं बनाते, मोहम्मद, कृष्ण और क्राइस्ट जिसे नहीं बनाते। ज्यादा से ज्यादा उसके संबंध में कुछ खबर देते हैं, बनाते नहीं। इसलिए ऋषि नहीं कहते कि हम जो कह रहे हैं, वह हमारा है। कहते हैं, ऐसा पहले भी लोगों ने कहा है, ऐसा सदा ही लोगों ने जाना है। यह जो हम खबर ला रहे हैं, यह उस रास्ते की खबर है जो सदा से है। जब हम नहीं थे, तब भी था। और जब कोई नहीं था, तब भी था। जब यह जमीन बनती थी और इस पर कोई जीवन न था, तब भी था। और जब यह जमीन मिटती होगी और जीवन विसर्जित होता होगा, तब भी होगा। आकाश की भांति वह सदा मौजूद था।
यह दूसरी बात है कि हमारे पंख इतने मजबूत न थे कि हम उसमें कल तक उड़ सकते; आज उड़ पाते हैं। यह दूसरी बात है कि आज भी हम हिम्मत नहीं जुटा पाते और अपने घोंसले के किनारे पर बैठे रहते हैं, परों को तौलते रहते हैं, और सोचते रहते हैं कि उड़ें या न उड़ें। लेकिन वह आकाश आपके उड़ने से पैदा नहीं होगा। वह आपके पंख भी जब पैदा न हुए थे, जब आप अंडे के भीतर बंद थे, तब भी था। और आपके पास पंख भी हों, और आप बैठे रहें और न उड़ें, तो ऐसा नहीं कि आकाश नहीं है। आकाश है। आकाश आपके बिना है।
तो सनातन पथ तो वह है जो चलने वाले के बिना है। अगर चलने वाले पर कोई पथ निर्भर है, तो वह सनातन नहीं है। और जिस पथ पर भी चला जा सकता है वह विकारग्रस्त हो जाता है, क्योंकि चलने वाला अपनी बीमारियों को लेकर चलता है। इसे भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
जो बीमारियों के बाहर हो गया वह चलता नहीं। चलने की कोई जरूरत न रही। वह पहुंच गया। जो बीमारियों से भरा है वह चलता है। चलता ही इसलिए है कि बीमारियां हैं, उनसे छूटना चाहता है। बीमारियों से छूटने के लिए ही चलता है। जिस रास्ते पर भी चलता है, वहीं, उसी रास्ते को संक्रामक करता है। जहां भी खड़ा होता है, वहीं अपवित्र हो जाता है सब। जहां भी खोजता है, वहीं और धुआं पैदा कर देता है।
जैसे पानी में कीचड़ उठ गई हो और कोई पानी में घुस जाए और कीचड़ को बिठालने की कोशिश में लग जाए, तो उसकी सारी कोशिश, जो कीचड़ उठ गई है, उसे तो बैठने ही न देगी, और जो बैठी थी, उसे भी उठा लेती है। वह जितना डेस्पेरेटली, जितना पागल होकर कोशिश करता है कि कीचड़ को बिठा दूं, बिठा दूं, उतनी ही कीचड़ और उठ जाती है, पानी और गंदा हो जाता है। लाओत्से वहां से निकलता होगा, तो वह कहेगा कि मित्र, तुम बाहर निकल आओ। क्योंकि जिसे तुम शुद्ध करोगे वह अशुद्ध हो जाएगा, तुम ही अशुद्ध हो इसलिए। तुम कृपा करके बाहर निकल आओ। तुम पानी को अकेला छोड़ दो। तुम तट पर बैठ जाओ। पानी शुद्ध हो जाएगा। तुम प्रयास मत करो। तुम्हारे सब प्रयास खतरनाक हैं।
वह पथ अविकारी नहीं हो सकता जिस पथ पर बीमार लोग चलें।
और ध्यान रहे, सिर्फ बीमार ही चलते हैं। जो पहुंच गए, जो शुद्ध हुए, जिन्होंने जाना, वे रुक जाते हैं। चलने का कोई सवाल नहीं रह जाता। असल में, हम चलते ही इसलिए हैं कि कोई वासना हमें चलाती है। वासना अपवित्रता है। ईश्वर को पाने की वासना भी अपवित्रता है। मोक्ष पहुंचने की वासना भी अपनी दुर्गंध लिए रहती है। असल में, जहां वासना है, वहीं चित्त कुरूप हो जाएगा। जहां वासना है, वहीं चित्त तनाव से भर जाएगा। जहां वासना है पहुंचने की, जहां आकांक्षा है, वहीं दौड़, वहीं पागलपन पैदा होगा। और सब बीमारियां आ जाएंगी, सब बीमारियां इकट्ठी हो जाएंगी।
लाओत्से कहता है, जिस पथ पर विचरण किया जा सके, वह पथ सनातन भी नहीं, अविकारी भी नहीं।
क्या ऐसा भी कोई पथ है जिस पर विचरण न किया जा सके? क्या ऐसा भी कोई पथ है जिस पर चला नहीं जाता, वरन खड़ा हो जाया जाता है? क्या ऐसा भी कोई पथ है जो खड़े होने के लिए है?
कंट्राडिक्टरी मालूम पड़ेगा, उलटा मालूम पड़ेगा। रास्ते चलाने के लिए होते हैं, खड़े होने के लिए नहीं होते। लेकिन ताओ उसी पथ का नाम है जो चला कर नहीं पहुंचाता, रुका कर पहुंचाता है। लेकिन चूंकि रुक कर लोग पहुंच गए हैं, इसलिए उसे पथ कहते हैं। चूंकि लोग रुक कर पहुंच गए हैं, इसलिए उसे पथ कहते हैं। और चूंकि दौड़-दौड़ कर भी लोग संसार के किसी पथ से कहीं नहीं पहुंचे हैं, इसलिए उसे पथ सिर्फ नाम मात्र को ही कहा जा सकता है। वह पथ नहीं है।...osho

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