शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

पद. ४२७

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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https://youtu.be/diY6bGyF6wI
४२७. विनती त्रिताल ~
साजनियां ! नेह न तोरी रे,
जे हम तोरैं महा अपराधी, तो तूँ जोरी रे ॥ टेक ॥ 
प्रेम बिना रस फीका लागै, मीठा मधुर न होई ।
सकल शिरोमणि सब तैं नीका, कड़वा लागै सोई ॥ १ ॥ 
जब लग प्रीति प्रेम रस नाँहीं, तृषा बिना जल ऐसा ।
सब तैं सुन्दर एक अमीरस, होइ हलाहल जैसा ॥ २ ॥ 
सुन्दरि सांई खरा पियारा, नेह नवा नित होवै ।
दादू मेरा तब मन मानै, सेज सदा सुख सोवै ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव अखंड प्रीति अर्थ विनती कर रहे हैं कि हे हमारे साजन परमेश्वर ! आप हमसे अपनी प्रीति नहीं तोड़ लेना और यदि हम अपराधी होने के कारण आपसे प्रीति तोड़ भी लें, तो भी कृपा करके जोड़ने की ही दया करना । जिस प्रकार प्रेम बिना मीठे मधुर पदार्थ भी फीके लगते हैं, इसी प्रकार हृदय में प्रेमा - भक्ति के बिना सर्व के शिरोमणि और सर्व से श्रेष्ठ परमेश्वर निष्काम नाम - स्मरण, सांसारिक प्राणियों को फीका लगता है अर्थात् कड़वा लगता है । जब तक हृदय में परमेश्वर में प्रीति उत्पन्न नहीं होवे, तब तक परमेश्वर की प्रेमाभक्ति का रस प्राप्त नहीं होता है । जैसे प्यास के बिना कोई भी प्रीतिपूर्वक जल को नहीं पीते, इसी प्रकार सब मायावी रसों से उत्तम, एक निष्काम प्रेमाभक्ति रूपी अमृत रस भी सांसारिक प्राणियों के लिये हलाहल विष की भांति प्रतीत होता है । परन्तु जिस सुन्दरी संत आत्मा के हृदय में सत्य - स्वरूप प्यारे परमेश्वर का स्नेह अर्थात् प्रीति नित्य नई बढ़ती है, वही संत आत्मा हृदय रूपी सेज पर अपने अधिष्ठान चैतन्य परमेश्वर से ओत - प्रोत होकर एकत्व रूप आनन्द का अनुभव करती है । ऐसे उत्तम साधक का मन एक परमेश्वर से ही ‘माने’ कहिए लगे, तभी उसको अच्छा लगता है

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