मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

= ८७ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
तन मन इन्द्रिय वशीकरण ऐसा सद्गुरु शूर |
शंक न आने जगत की, हरि सों सदा हजूर ||
समदृष्टी शीतल सदा, अदभुत जाकी चाल |
ऐसा सतगुरु कीजिये, पल में करे निहाल ||
तौ करै निहालं, अद्भुत चालं, भया निरालं तजि जालं ।
सो पिवै पियालं, अधिक रसालं, ऐसा हालं यह ख्यालं ॥
पुनि बृद्ध न बालं, कर्म न कालं, भागै सालं चतुराशी ।
दादू गुरु आया, शब्द सुनाया, ब्रह्म बताया अविनाशी ॥
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साभार ~ Anand Nareliya
गुरु वह है, जिसकी तरफ आदर नदियों की तरह बहने लगता है
ऐसा हुआ कि बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए। उसके पहले पांच संन्यासी उनके साथ रहते थे। वे पांचों तपस्वी थे। निराहार रहते थे, भूखे रहते थे, धूप में खड़े होते थे, हठयोगी थे। और बुद्ध के प्रति बड़ा आदर था। क्योंकि बुद्ध भी महा-हठयोगी थे। कभी महीनों तक एक ही चावल के दाने पर जीते थे। बस, रोज एक ही चावल का दाना। शरीर सूख कर हड्डियां हो गया था। उस समय की एक मूर्ति उपलब्ध है, जिसमें बुद्ध की छाती की हड्डियां गिनी जा सकती हैं। पेट सिकुड़ पर पीठ से लग गया था। बस, चमड़ी ही रही थी शरीर में। सब मांस खो गया था। तब वे पांचों बुद्ध को बड़ा सम्मान देते थे।
फिर बुद्ध को दिखाई पड़ी व्यर्थता कि इस तरह शरीर को सुखाने से तो कुछ भी मिलता नहीं। शरीर सुखाने से कुछ मिलता होता, इतना आसान होता, सत्य को पाना, कि शरीर सुखाने से मिल जाता होता, तो न मालूम कभी का लोगों ने पा लिया होता। शरीर सुखाना कोई बहुत बड़ी कला तो नहीं। थोड़ी सी दुष्टता चाहिये, हिंसा चाहिए, बस! शरीर को सुखाने में क्या बड़ा उपाय लगाना पड़ता है?
बुद्ध ने बहुत चेष्टा करके देखी। तब उन्होंने पाया, यह तो व्यर्थ है। मैं व्यर्थ ही अपनी हिंसा कर रहा हूं, हत्या कर रहा हूं। और एक दिन निरंजना नदी से स्नान करके निकलते थे, तो इतने कमजोर थे कि निकल न सके। गिर पड़े। तो उन्हें लगा कि इस छोटी सी नदी से मैं निकल नहीं पाता और जीवन के भवसागर से कैसे निकल पाऊंगा? इतना कमजोर हो गया हूं। नहीं, इस कमजोरी से नहीं चलेगा। तो उस दिन उन्होंने आहार ग्रहण किया।
वे पांचों संन्यासी नाराज हो गये। उन्होंने कहा, यह गौतम भ्रष्ट हो गया है। क्योंकि वे इनके पास इसीलिए थे कि गौतम उनसे भी ज्यादा बड़ी दुष्टता अपने साथ कर रहे थे। इसलिये वे इनके अनुयायी थे। उन्होंने कहा, यह गौतम भ्रष्ट हो गया। अब हम इसका साथ छोड़ दें।
वे पांचों गौतम को छोड़ कर चले गये काशी की तरफ। फिर बुद्ध को उसी रात ज्ञान हुआ। तो ज्ञान के बाद बुद्ध को लगा, वे पांचों भला नाराज हो गये हों; लेकिन वर्षों तक मेरे साथ रहे, मेरी सेवा की, मेरे साथी हैं पुराने। मेरा कर्तव्य है कि जो मुझे मिला है, सबसे पहले इसकी खबर उन्हें दूं।
तो बुद्ध उनका पता लगाते हुए काशी की तरफ गये। सारनाथ वह जगह है, जहां यह घटना घटी। इसलिये सारनाथ तीर्थ हो गया। वे पांचों भिक्षु बैठे थे एक वृक्ष के नीचे। उन्होंने गौतम को आते देखा, तो उन पांचों ने कहा, वह आ रहा है भ्रष्ट गौतम, जो साधना से च्युत हो गया। जिसने योग छोड़ कर भोग का मार्ग पकड़ लिया। जिसने उपवास छोड़कर भोजन किया। जिसने जन्मों-जन्मों की तपश्चर्या मुफ्त गंवा दी। जिसका सब पुण्य नष्ट हो गया और अब यह एक संसारी है, देखो, वह चला आ रहा है। हम उसे आदर न दें। हम उसके सम्मान में उठ कर खड़े न हों। हम उसकी तरफ पीठ कर लें। क्योंकि भ्रष्ट के प्रति यही व्यवहार उचित है।
वे पांचों पीठ कर के बैठ गये। गौतम उनके पास गये। जैसे-जैसे गौतम पास आने लगे, उन्हें बड़ी बेचैनी हुई। पीठ किए रहना मुश्किल हो गया। उनमें से एक ने फेर के देखा कि पांचों बुद्ध की तरफ देखे। फिर एक उठा और बुद्ध के चरणों में झुका कि वे पांचों झुके।
बुद्ध ने कहा कि ‘तुमने अपना निर्णय क्यों बदल दिया? क्योंकि मैंने देखा कि तुमने पीठ कर ली है मेरी तरफ। मैं समझा कि तुम अपमान करना चाहते हो, सम्मान देने की इच्छा नहीं है। ठीक है। लेकिन तुमने इतनी जल्दी बदल कैसे लिया अपना व्यवहार?’
उन्होंने कहा, ‘हम क्या करें? तुम दूसरे ही होकर आये हो। तुम इस पृथ्वी के मालूम नहीं पड़ते। आदर सहज फलित हो रहा है। जैसे नदियां सागर की तरफ बहती हैं, ऐसे हमारी आत्मा तुम्हारी तरफ बही जाती है। तुम कुछ जादू कर दिये हो।’
गुरु को आदर नहीं देना पड़ता। गुरु वह है, जिसकी तरफ आदर नदियों की तरह बहने लगता है। लेकिन कठिनाई है। यही कठिनाई जीवन में चेतन-अचेतन के द्वंद्व को पैदा करती है।...osho





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