मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

= ८६ =

卐 सत्यराम सा 卐
जे नांही सो देखिये, सूता सपने माँहि ।
दादू झूठा ह्वै गया, जागे तो कुछ नांहि ॥
यहु सब माया मृग जल, झूठा झिलमिल होइ ।
दादू चिलका देखि कर, सत कर जाना सोइ ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya
~ साधना भी स्‍वप्‍न है और संन्यास भी
मन यदि स्वप्नवत है, तो फिर मन से जो भी किया जाए वह भी तो स्वप्नवत ही होगा न! तब क्या साधना भी स्वप्नवत ही है और संन्यास भी?

ऐसा ही है। साधना भी स्‍वप्‍न है और संन्यास भी। मगर स्‍वप्‍न—स्‍वप्‍न में भेद है। एक कांटा लग जाता है पैर में तो दूसरे कांटे से हम पहले कांटे को निकालते हैं। दूसरा भी कांटा है, ध्यान रखना। मगर एक लग गया है कांटा तो दूसरे काटे से निकालते हैं। दूसरा कांटा नहीं है, ऐसा मत सोच लेना, नहीं तो बड़ी भूल हो जाएगी। फिर जब पहला कांटा निकल गया तो क्या करते हो? दोनों काटे फेंक देते हो। यह थोड़े ही है कि दूसरे काटे को सम्हालकर रख लेते हो, कि इसको तिजोड़ी में बंद रखते हो, कि इसकी पूजा करते हो।

संसार कांटा है। संन्यास भी कांटा है। एक काटे से दूसरे कांटे को निकाल लेना है। फिर दोनों बेकार हो गए। परम अवस्था में संन्यास भी नहीं है।

उस ब्राह्मण ने जिसने बुद्ध से पूछा कि आप देव हैं, गंधर्व हैं, मनुष्य हैं, वह एक बात भूल गया, उसे पूछना चाहिए था, आप संन्यासी हैं, गृहस्थ हैं? तो भी वह कहते कि न मैं संन्यासी हूं न गृहस्थ हूं। वह कहते, मैं बुद्ध हूं। बुद्धत्व की घटना में कहा संसार और कहा संन्यास! संसार बीमारी है, तो संन्यास औषधि है। लेकिन जब बीमारी चली गयी तो तुम औषधि की बोतल भी तो फेंक आते न कचरेघर में! उसको सम्हालकर थोड़े ही रख लेते हो। या लायंस क्लब को दान कर आते हो! उसका करोगे क्या? व्यर्थ हो गयी।

जहर से जहर को मिटाना पड़ता है। संन्यास भी उतना ही स्‍वप्‍न है, जितना संसार। इस छोटी सी कहानी को अपने हृदय में लो—

एक व्यक्ति ने स्वप्न में देखा कि वह चोरी के जुर्म में पकड़ लिया गया है—होगा कृष्णप्रिया जैसा, स्वीकार न करोगे तो सपना आएगा और सपने में फंसोगे, इससे बेहतर है, जागने में स्वीकार कर लेना चाहिए—एक व्यक्ति ने स्वप्न में देखा कि वह चोरी के जुर्म में पकड़ लिया गया है और जेल में बंद है। उसने बहुत आरजू—मिन्नतें कीं, मित्रों को कहा, मजिस्ट्रेट को कहा, किंतु कोई काम नहीं आया, कोई काम नहीं हुआ। वह जानता था कि वह निर्दोष है, किंतु फिर भी अपने को बचा नहीं पा रहा था।

उसी बीच जब उसके दुख के उसकी आंखों में आंसू थे, एक सर्प ने उसे काट खाया। सर्प के कांटते ही एक चीख उसके मुंह सें निकली और वह जग गया। और उसने पाया कि वह तो बिलकुल ठीक है, और आराम से अपने बिस्तर पर है। न कोई चोरी की है, न कोई मजिस्ट्रेट है, न कोई जेल है, न कोई सजा है।

वह बहुत हंसने लग। वह तो कभी बंदी था ही नहीं। उसका बंदी होना, उसकी आरजू—मिन्नतें, मित्रों, मजिस्ट्रेटों से, जेलर से, प्रार्थनाएं, सब स्‍वप्‍न थे। वह सांप भी स्वप्न ही था जिसने उसे काटा, पर उसमें अन्य वस्तुओं से थोड़ी सी भिन्नता थी। उसने उसे जगा दिया। जागने पर वह सांप भी असत्य हो गया। लेकिन उसमें जगाने की सामर्थ्य थी। जेल भी झूठ था, सांप भी झूठ था, चोरी भी झूठ थी, मित्र और मजिस्ट्रेट भी झूठ थे, कारागृह में पड़ा हुआ, हाथ में जंजीरें बंधा हुआ, वह भी झूठ था, वह सांप भी झूठ था। लेकिन झूठ—झूठ में थोड़ा फर्क था, सपने —सपने में थोड़ा फर्क था। उस सांप ने कांटा—हाथ मैं जंजीरें थीं तो अपने को बचा भी नहीं पाया, बचाता भी कैसे —कांटा तो चीख निकल गयी। चीख निकली तो नींद टूट गयी।

ऐसा ही समझना। साधना भी उतना ही स्वप्न है जितना संसार। पर स्वप्न—स्वप्न में भेद है। अगर साधना को काटने दिया तो चीख निकल जाएगी। उसी चीख में जागरण हो जाएगा(है), जागकर तो वह भी झूठ हो गया साप, जागकर तो वह भी उतना ही असत्य हो गया। पहले सांप ने जेल के सपने को खाया, मजिस्ट्रेट के सपने को खाया, कैदी कै सपने को खाया और फिर अंततः सांप अपने को भी खाकर मर गया, उसने आत्महत्या कर ली।

संन्यास पहले संसार को मिटा देता है, और फिर स्वयं आत्मघात कर लेता है और मिट जाता है। संन्यास कोई आखिरी बात नहीं है, मध्य की बात है। जोड्ने वाली बात है। संन्यास एक उपाय है, बस, इससे ज्यादा नहीं है। और उपाय की भी इसीलिए जरूरत है कि हम कहीं उलझे हैं। न उलझे होते तो उपाय की भी कोई जरूरत न थी।

तो खयाल रखना, दोनों ही असत्य हैं। इसलिए गृहस्थी से निकलकर संन्यस्त में इस तरह मत उलझ जाना जैसे गृहस्थी में उलझे थे। ध्यान तो यही रखना कि एक दिन इससे भी जाग जाना है। यह स्मरण बना ही रहे—एक दिन ध्यान से भी मुक्त हो जाना है। एक दिन जप—तप से भी मुक्त हो जाना है। एक दिन तो ऐसी घड़ी आनी है जहां सिर्फ बुद्धत्व रह जाए, शुद्ध दीया जलता रह जाए, जरा भी धुआ न हो, कुछ और शेष न रह जाए। शून्य में जलती हो ज्योति, उसका कोई रूप—रंग न रहे, कोई आकृति न रहे, कोई ढंग न रहे। सब कोटियों के पार सत्य का आवास है। उस सत्य को ही हम निर्वाण कहते हैं।

तो ऐसा समझो—संसार, संन्यास, निर्वाण। संसार की बीमारी को संन्यास की औषधि से मिटा देना है, ताकि निर्वाण पालित हो जाए। एक भ्रांति को दूसरी भ्रांति से मिटा देना है....osho

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