शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

= ७३ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू सबको पाहुणा, दिवस चार संसार ।
औसर औसर सब चले, हम भी इहै विचार ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya
~ संसार से मुक्ति कैसे हो?
बुद्ध ने कहा है कि एक सांझ वे एक नदी के किनारे घूमने गए थे, उन्होंने कुछ बच्चों को रेत के घर बनाते देखा। रेत के घर! लेकिन बच्चे बड़ा मेरा - तेरा कर रहे थे। कोई कह रहा था कि मेरा तुझसे ऊंचा है, कोई कह रहा था, तेरे में क्या रखा है! सब रेत के घर - पूले बनाए हुए थे। और कभी किसी बच्चे के धक्के से किसी का रेत का घर गिर जाए - अब रेत के ही घर हैं, कोई गिरने में देर लगती नहीं है, कभी तो बिना ही धक्के के भी गिर जाते हैं - किसी के धक्के से किसी का रेत का घर गिर गया तो वह बच्चा उसकी छाती पर चढ़ बैठा, और उसने कहा कि देखते नहीं, होश से नहीं चलते! मेरा घर मिटा दिया, मेरी मेहनत बरबाद कर दी! मारपीट भी हो गयी।
बुद्ध खड़े देखते किनारे पर कि यह भी खूब मजा है, रेत के घर हैं, गिर ही जाएंगे। रेत के घर हैं, उन पर भी दावेदार खड़े हो गए हैं कि मेरा है, तेरा है। लकीरें खींच ली हैं उन्होंने अपने घरों के चारों तरफ कि इस सीमा के भीतर मत घुसना, सावधान, इसके भीतर कोई आया तो ठीक नहीं होगा! और कोई भीतर आ गया है तो झगड़े भी हो गए हैं।
फिर एक नौकरानी आयी और उसने जोर से आवाज दी बच्चों को कि बच्चों, अब घर चलो; सांझ हो गयी है, सूरज ढलने लगा है, तुम्हारी माताएं तुम्हारी याद कर रही हैं। वह सब बच्चे उछले - कूदे, उन्होंने अपने ही बनाए हुए घरों पर कूद - कूदकर सब मिटा दिए, रेत पड़ी रह गयी, बच्चे नाचते - कूदते वापस चले गए।
बुद्ध ने दूसरे दिन अपने भिक्षुओं से कहा, भिक्षुओ, इस घटना में बड़ा संदेश है। मान लिया था जब तक तो अपने घर थे, कोई दूसरा भी गिराता था तो झगड़ा खड़ा होता था। जब बच्चों ने जान लिया कि अब घर जाने का वक्त आ गया है, सांझ हो गयी, अपने ही घरों पर कूद - फादकर मिटाकर उनको, नाचते - कूदते सब घर चले गए, सब झगड़े - झांसे बंद हो गए, बात ही भूल गए। जिनसे लड़े थे उन्हीं के हाथ में हाथ डाले हुए, गले में हाथ डाले हुए घर की तरफ लौट गए।
ऐसी ही जिंदगी है, भिक्षुओ, बुद्ध ने कहा, ऐसा ही संसार है। जिसे साफ दिखायी पड़ने लगा कि यहां मरना है, यहां संध्या होने के ही करीब है, कभी भी हो सकती है, उसको कैसा रस रह जाएगा। कैसा बंधन रह जाएगा!...osho

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