शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

= ७४ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू झूठा बदलिये, साच न बदल्या जाइ ।
साचा सिर पर राखिये, साध कहै समझाइ ॥ 
साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन अंध ।
दादू मुक्ता छाड़ कर, गल में घाल्या फंद ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya
~ न्याय बहुत नीचे तल की बात है
न्याय का अर्थ ही यह होता है कि जो उचित हो, वही हो। न्याय में करुणा समाविष्ट नहीं है। न्याय का तो इतना ही अर्थ है, जो नियम उपयुक्त हो, वही हो। करुणा में हृदय है, न्याय में सिर्फ बुद्धि है। करुणा बड़ी बात है। करुणा का अर्थ है, जो होना चाहिए वही हो। नियम की बात नहीं है, नियम से बड़ी बात है।
जैसे समझो, तुम अदालत में गए, तुमने चोरी की है, तो न्यायाधीश देखता है अपनी किताबों में, उलटता - पलटता है, कानून खोजता है, तुमने पचास रुपए की चोरी की, दंड खोजता है, दंड किताब में लिखा है, हिसाब से तुम्हें दंड दे देता है। तुमसे दूर रहता है, तुमसे कोई मानवीय संबंध नहीं जोड़ता। यह नहीं सोचता कि तुम्हारे भीतर भी मनुष्य का धड़कता हुआ हृदय है। यह नहीं सोचता कि तुम्हारी पत्नी है, तुम्हारे बच्चे हैं; यह नहीं सोचता कि तुम भूखे रहे होओगे, शायद तुमने चोरी कर ली, शायद चोरी करनी पड़ी; शायद मजबूरी थी, शायद न्यायाधीश भी तुम्हारी स्थिति में होता तो चोरी करता, शायद कोई भी तुम्हारी स्थिति में होता तो चोरी करता, यह नहीं सोचता, ये बातें विचार में नहीं लाता। वह तो सिर्फ देखता है, तुमने चोरी की, चोरी का यह दंड है। वह बिलकुल अमानवीय ढंग से, यंत्रवत निर्णय देता है। तो न्याय तो हो गया, लेकिन करुणा न हुई। करुणा जरा बड़ी बात है।
मैंने सुना है, एक चीनी फकीर न्यायाधीश था - फकीर होने के पहले। मगर फकीरी की कुछ धुन तो रही होगी तब भी। जब वह न्यायाधीश हुआ और उसके सामने पहला मुकदमा आया - बस पहला ही मुकदमा आया, दूसरा तो आने का मौका ही न रहा, क्योंकि सम्राट ने उसे निकाल बाहर कर दिया।
उसके सामने पहला मुकदमा आया - स्व गरीब आदमी ने एक अमीर आदमी की चोरी कर ली थी। कोई बड़ी चोरी भी न थी, होगी कोई दो - चार सौ रुपए की।
कानून था कि उसे छह महीने की सजा होनी चाहिए। उसने कहा कि ठीक है, छह महीने की सजा इस आदमी को जिसने चोरी की और छह महाने की सजा इस आदमी को जिसकी चोरी की। वह अमीर तो हंसने लगा, उसने कहा, आपका दिमाग ठीक है? एक तो मेरी चोरी हुई और छह महीने की सजा भी! आप कह क्या रहे हैं, होश में हैं? उसने कहा, मैं होश में हूं। और छह महीने की सजा कम है, यह भी मुझे पता है। तुम्हें सजा मिलनी चाहिए कम से कम छह साल की।
बात सम्राट तक पहुंची। पहुंचनी ही थी, अमीर ने तो बड़ा गुहार मचाया, उसने कहा, यह किस तरह का न्याय है! सम्राट भी हैरान हुआ कि यह किस तरह का न्याय है! फकीर को बुलाया और कहा कि यह किस तरह का न्याय है?
उसने कहा, यह न्याय है। ठीक तो नहीं है, क्योंकि छह महीने की सजा कम है। इस आदमी ने सारे गांव का धन इकट्ठा कर लिया है, अब चोरी न होगी तो क्या होगा! यह आदमी चोर से भी पहले चोरी के लिए जिम्मेवार है। चोर तो नंबर दो का जुर्मी है, यह नंबर एक का जुर्मी है। इसने सारा धन इकट्ठा कर लिया गांव का। पूरा गांव भूखा मर रहा है और सब इसके पास है।
सम्राट ने कहा, बात तो ठीक है, लेकिन खतरनाक है। इसका तो मतलब हुआ कि मैं भी, कल नहीं परसों, तुम्हारी अदालत में फंस जाऊंगा। तुम छुट्टी लो, तुम विदा हो जाओ।
इसमें करुणा है। एक महत्वपूर्ण सत्य यह फकीर सामने ले आया। इसने हार्दिक ढंग से सोचा।
न्याय में और करुणा में समन्वय तो नहीं हो सकता, क्योंकि न्याय बहुत नीचे तल की बात है, करुणा बहुत ऊपर तल की बात है, लेकिन न्याय की परिपूर्णता करुणा में है। न्याय वह, जो आवश्यक है, करुणा वह, जो होनी चाहिए। न्याय, बस अनिवार्य है, करुणा, न्याय की परिपूर्णता है। करुणा में न्याय अपनी प्रखर ज्योति को उपलब्ध होता है।
इसे ऐसा समझो, कठोरता से अन्याय पैदा होता है। तो कठोरता में बीज है अन्याय का। कठोर आदमी अन्यायी हो ही जाएगा। कठोरता में बीज है, अन्याय के फल लगेंगे। फिर न्याय में बीज छिपा है करुणा का। न्यायी आदमी एक न एक दिन करुणावान हो ही जाएगा - हों ही जाना चाहिए, नहीं तो बीज बीज रह गया, वृक्ष न बन पाया। बीज और वृक्ष में कोई समन्वय नहीं है, क्योंकि बीज एक तल की बात है, वृक्ष बिलकुल दूसरे तल की बात है। बीज अनभिव्यक्त और वृक्ष अभिव्यक्त। दोनों में बडा फर्क है।
तुम्हारे सामने कोई बीज रख दे एक - और सामने ही यह गुलमोहर का फूलों से लदा हुआ वृक्ष है, और गुलमोहर का बीज तुम्हारे सामने रख दे और तुमसे कहे कि इस बीज में और इस वृक्ष में क्या संबंध है? कोई संबंध नहीं दिखायी पड़ता।
बीज में एक भी फूल नहीं खिला है, और यह गुलमोहर दुल्हन की तरह सजा है। और बीज जरा सा, काला - कलूटा! कुछ दिखता नहीं इसमें, इसमें से कुछ हो भी सकता है इसकी भी संभावना नहीं मालूम पड़ती, कंकड - पत्थर जैसा मालूम पड़ता है। लेकिन यह वृक्ष उसी से हुआ है। बीज और वृक्ष में एक यात्रा है।
न्याय बीज है, करुणा उस बीज का पूरा का पूरा प्रस्फुटित हो जाना है, पूरा प्रफुल्ल हो जाना है, पूरा खिल जाना है।
दुनिया में अन्याय है, अभी तो न्याय ही नहीं, इसलिए करुणा की तो बात ही करनी असंभव है। दुनिया की हालत अन्याय की है, अभी तो न्याय ही हो जाए तो बहुत। लेकिन जब न्याय होने लगेगा तो तत्‍क्षण हमें करुणा की बात सोचनी पड़ेगी। करुणा मनुष्य - जीवन का अंतिम लक्ष्य है। वहां तक पहुंचना ही चाहिए। उस ऊंचाई तक जब तक हम न पहुंचें, हमारे जीवन में फूल नहीं लगते हैं, कमल नहीं खिलते।
करुणा में न्याय समाविष्ट है। लेकिन न्याय में करुणा अनिवार्य रूप से समाविष्ट नहीं है। न्याय तो शुरुआत है, न्याय तो अन्याय से छुटकारे का उपाय है। फिर जब अन्याय से कोई छूट जाए, तो उतने से ही राजी मत हो जाना।
इसको ऐसा समझो। एक आदमी बीमार है। इस बीमार आदमी की बीमारी अलग हो जाए, इतना ही काफी नहीं है। स्वास्थ्य का आविर्भाव भी होना चाहिए। सिर्फ बीमारी का अलग हो जाना स्वस्थ हो जाना नहीं है। स्वास्थ्य की एक विधायकता है। स्वास्थ्य का एक झरना है, जो भीतर बहना चाहिए।
तुम्हें भी पता होगा। कई बार तुम कह सकते हो कि मैं बीमार नहीं हूं लेकिन स्वस्थ हूं, यह भी नहीं कह सकता। कई बार तुम कह सकते हो, मैं दुखी नहीं हूं लेकिन आनंदित हूं यह भी नहीं कह सकता। वह कौन सी घड़ी होती है जब तुम कहते हो कि मैं दुखी नहीं हूं, और आनंदित हूं यह भी नहीं कह सकता?
दुख तो नहीं है, दुख तो नहीं होना चाहिए, लेकिन यही थोड़े ही काफी है। दुनिया में इतना ही थोड़े काफी है कि लोग दुखी न हों। दुनिया में इतना पर्याप्त नहीं है। यह तो होना ही चाहिए कि लोग दुखी न हों, यह शर्त तो पूरी होनी ही चाहिए, लेकिन फिर एक और बडी शर्त है कि सुखी भी हों। सुख और बड़ो शर्त है। उसके लिए दुख का मिट जाना रास्ता बनेगा।
करुणा के लिए न्याय रास्ता बनाता है। वह न्याय के द्वारा करुणा के आगमन की संभावना खुल जाती है। अन्यायी आदमी तो कभी करुणावान नहीं हो सकता। न्यायी आदमी कभी हो सकता है। लेकिन न्याय पर ही रुक नहीं जाना है। यह मत सोचना कि बस मंजिल आ गयी।
बुद्ध ने कहा है, करुणा परम मंजिल है। जब तक जीवन में सतत करुणा प्रवाहित न होने लगे, तब तक समझना, अभी कहीं कुछ कमी है। तब तक समझना, अभी कहीं कुछ कठोर है। तब तक समझना, कहीं कुछ अवरोध है।....osho

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