शनिवार, 5 दिसंबर 2015

= ७६ =

卐 सत्यराम सा 卐
भाई रे, तब क्या कथसि गियाना, जब दूसर नाहीं आना ॥ टेक ॥
जब तत्त्वहिं तत्त्व समाना, जहँ का तहँ ले साना ॥ १ ॥
जहाँ का तहाँ मिलावा, ज्यों था त्यों होइ आवा ॥ २ ॥
संधे संधि मिलाई, जहाँ तहाँ थिति पाई ॥ ३ ॥
सब अंग सबही ठांहीं, दादू दूसर नांहीं ॥ ४ ॥
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साभार ~ Anand Nareliya ~
अगर समझदार होते तो संसार ही काफी था। संसार नहीं थका पाया तो फिर पतंजलि की, बुद्ध की, महावीर की जरूरत है
एक बड़ी महत्वपूर्ण झेन कथा—
साऊ सिन को समाधि उपलब्ध हो गयी थी। वह अपने गुरु हाऊ नान से मिलने गया। और जैसे ही वह चरण स्पर्श करने को था कि उसके गुरु ने कहा, रुको! रुको! अब तुम मेरे ही कक्ष में आ गए हो। स्टाप, नाव यू हैव कम इनटू माइ रूम। साऊ सिन ने कहा, मगर अगर यह शांति और सरलता ही सत्य—उपलब्धि थी, तो फिर आपने वे सारे व्यर्थ प्रयत्न और प्रयास करने को मुझे क्यों कहा था? हाऊ नान हंसने लगा —गुरु हंसने लगा—उसने कहा, ताकि तुम थक जाओ और प्रयास छोड़ दो। कुछ पाना थोड़े ही है, जो तुम सदा से थे, प्रयास, दौड़ और अशांति के जाते ही वही तुम्‍हारा शाश्वत रूप प्रगट हो जाता है।
पहला बात, संसार छोड़ना नहीं है। दूसरी बात, कुछ पाना नहीं है। सिर्फ संसार कै पीछे तुम्हारे दौड़ने की जो पुरानी आदत, जो आपाधापी है, वह जो तृष्णा का तुमने एक बड़ा धुआ पैदा कर रखा है, वह धुआ भर शांत हो जाए, तुम अचानक पाओगे—तुम मुक्त थे ही, तुम मुक्त हो ही।
मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है। मुक्त होना तुम्हारी निजता है, तुम्हारा स्वधर्म है। संसार ने बाधा नहीं है और तुम्हें मुक्त नहीं होना है। यह बड़ी जटिल बात है। तुम मुक्त हो और तुम संसार की तरफ आंखें लगाए बैठे हो और अपनी तरफ देखते नहीं, इसलिए मुक्ति से चूकते चले जा रहे हो।
यह घटना प्यारी है कि जब शिष्य समाधि को उपलब्ध हो गया और गुरु के चरण छूने को झुका, तो गुरु ने कहा, रुक! रुक! अब तो तू मेरे ही कक्ष में आ गया, अब तो तू मेरे ही जैसा हो गया, अब पैर छूने की कोई जरूरत नहीं। शिष्य बहुत हैरान हुआ, क्योंकि उसे तो पता ही नहीं है कि समाधि लग गयी है। उसे तो इतना ही पता है कि चित्त शांत हो गया, उसे तो इतना ही पता है कि चित्त निर्मल हो गया, उसे तो इतना ही पता है कि एक मौन घना हो गया, लेकिन वह कैसे कहे कि समाधि लग गयी! उसे पहले तो समाधि लगी नहीं थी कभी, इसलिए पहचाने कैसे? प्रत्यभिज्ञा कैसे हो?
तो उसने कहा, अगर यही समाधि है, अगर यही मुक्ति है कि मैं तुम्हारे जैसा हो गया, कि मुझे भी निर्वाण उपलब्ध हो गया, तो पहले क्यों न कहा? क्योंकि मुझे तो कोई नयी बात नहीं हुई, थोड़ी अशांति जरूर चली गयी, तरंगें थोड़ी शांत हो गयीं, लेकिन मैं तो वही का वही हूं; झील अब पुरानी जैसी तरंगित नहीं है, मौन है, मगर हूं तो मैं वही का वही, नया कुछ भी नहीं हुआ है। माना कि सरल हो गया, थोडा निर्दोष हो गया, लेकिन कोई ऐसी बड़ी बात नहीं घटी कि कुछ नया हो गया हो! ऐसा ही समझो कि थोड़ी अशुद्धि थी, थोड़ी धूल जम गयी थी दर्पण पर, धूल हट गयी। क्या यही है निर्वाण? यही है मुक्ति? तो फिर मुझे इतने उपाय और इतने प्रयास और इतनी साधनाएं करने को क्यों कहा था? गुरु हंसने लगा। गुरु ने कहा, इसलिए ही कहा था कि तुम थक जाओ। तुम्हें खूब दौड़ाया, ताकि तुम थककर बैठ जाओ।
सारा योगशास्त्र सिर्फ इसीलिए है कि तुम थक जाओ। संसार तुम्हें नहीं थका पाया। अगर समझदार होते तो संसार ही काफी था। संसार नहीं थका पाया तो फिर पतंजलि की, बुद्ध की, महावीर की जरूरत है। अगर जरा भी समझदार होते तो संसार ने ही काफी थका दिया है, तुम रुक जाते, तुम बैठ जाते। तुम कहते, बहुत हो गया, अब यहां कुछ पाने को नहीं है, कुछ खोजने को नहीं है, कुछ छोड़ने को नहीं है, तुमने आंख बंद कर ली होतीं। आंख बंद करते ही तुम पाते कि तुम तो वहां विराजमान ही हो। जिसकी तुम खोज करते थे, तुम वहां बैठे ही हो।....osho

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