रविवार, 6 दिसंबर 2015

= ८० =

卐 सत्यराम सा 卐
ना हम छाड़ैं ना गहैं, ऐसा ज्ञान विचार ।
मध्य भाव सेवैं सदा, दादू मुक्ति द्वार ॥
सहज शून्य मन राखिये, इन दोन्यों के मांहि ।
लै समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नांहि ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~

भगवान!
एक लंबी और थकान भरी यात्रा में, तीन मुसाफिर साथ हो लिये। उन्होंने अपने पाथेय से लेकर सुख-दुख, सबकी साझेदारी कर ली।
कई दिनों के बाद उन्हें मालूम हुआ कि अब उनके पास सिर्फ कौर भर रोटी और घूंट भर पानी बचा है और वे इस बात के लिये झगड़ने लगे कि यह पूरा भोजन किसको मिले? नहीं बात बनी, तो उन्होंने रोटी और पानी को बांटने की कोशिश की। फिर भी वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके।
जब रात उतरी तब एक ने सो जाने का सुझाव दिया। तय किया कि जागने पर वह व्यक्ति निर्णय करेगा जो रात में सबसे बढ़िया स्वप्न देखेगा।
दूसरी सुबह सूर्योदय के साथ तीनों मुसाफिर नींद से उठे।
पहले ने कहा, ‘यह मेरा स्वप्न है। मैं ऐसे स्थानों में ले जाया गया, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। वे ऐसे अपूर्व, अदभुत और प्रशांत थे। और मुझे एक ज्ञानी पुरुष मिला, जिसने मुझे कहा कि तुम भोजन के हकदार हो, क्योंकि तुम्हारा व्यतीत और भावी जीवन, योग्य और सराहनीय है।’
दूसरे ने कहा, ‘आश्चर्य की बात है, स्वप्न में मैंने अपने पूरे अतीत और भविष्य को देखा। और मेरे भविष्य में मुझे एक सर्वज्ञ पुरुष मिला, जिसने कहा कि अपने मित्रों से बढ़कर तुम रोटी के हकदार हो, क्योंकि तुम अधिक विद्वान और धैर्यवान हो। तुम्हारा पोषण ठीक से होना चाहिए, क्योंकि तुम निश्चित मनुष्यों के नेता बनने वाले हो।’
तीसरे यात्री ने कहा, ‘मेरे स्वप्न में मैंने न कुछ देखा, न कुछ सुना, और न कुछ कहा। मैंने एक दुर्निवार वर्तमान का अनुभव किया, जिसने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं उठूं, रोटी और पानी की तलाश करूं और तत्क्षण उनका भोग करूं। और मैंने वही किया।’
भगवान! इस सूफी प्रबोध कथा को हमें समझाने की करुणा करें।
मनुष्य का मन, या तो अतीत में भटकता है या भविष्य में। और जीवन है अभी और यहीं। जीवन है सदा वर्तमान। जीवन को हम चूकते हैं इसी कारण कि मन वहां होता है जहां जीवन नहीं। और जहां जीवन है वहां मन कभी होता नहीं। तुम या तो सोचते हो वह जो घट चुका, या सोचते हो वह जो घटेगा। जो घट चुका है वह अब कहीं भी नहीं, और जो घटेगा वह भी अभी कहीं नहीं। है तो केवल वही, जो अभी है, यहीं है, इस क्षण है। जो न तो घट चुका है और न घटेगा, बल्कि जो घट रहा है।
जरा तुम चूके कि उससे तुम भटक जाओगे। क्योंकि वर्तमान का क्षण बड़ा संकरा है। अनंत का वह द्वार है, लेकिन द्वार बड़ा संकरा है। जीसस ने कहा है, ‘नैरो इज दि गेट’–द्वार बहुत संकरा है। यद्यपि अनंत का है। अगर तुम उसमें कूद गये, तो शाश्वत जीवन तुम्हारा होगा। अगर तुम उससे डांवाडोल रहे, इस तरफ उस तरफ भटकते रहे, तो क्षणभंगुर जीवन तुम्हारा होगा; यह बड़ा विरोधाभास है। अगर वर्तमान क्षण में कोई उतर जाये, तो शाश्वत से मिलन होता है। और अगर वर्तमान क्षण से कोई चूक जाये, तो क्षणभंगुर से मिलन होता है।
और वर्तमान का क्षण इतना छोटा मालूम पड़ता है, शायद इसीलिए तुम उसे छोड़ देते हो। अतीत बहुत लंबा है। भविष्य भी बहुत लंबा है। भ्रांति होती है कि अतीत और भविष्य दोनों को मिला दें, तो शाश्वत बन जाता है। इसलिए मन सोचता है अतीत में जाओ, भविष्य में जाओ, वर्तमान में क्या रखा है? वहां जगह कहां? वहां जरा सा भी तो स्थान नहीं है। वहां तुम जैसे ही सजग होते हो, वैसे ही वर्तमान जा चुका होता है। द्वार का पता चलते ही द्वार पीछे हट जाता है।
वहां तो केवल वे ही प्रवेश कर सकते हैं, जिनके मन में एक भी विचार न हो। जो इतने शून्य हों कि चूकने का कोई कारण ही न बचे; एक विचार भी चुका देगा।
विचार से भी ज्यादा संकरा है वर्तमान का द्वार। और समस्त ध्यान, बस एक ही बात की कोशिश है कि कैसे तुम्हें पीछे से यहां ले आयें। कैसे तुम्हें आगे न जाने दें, कैसे तुम यहीं ठहर जाओ, कैसे तुम थिर हो जाओ, कैसे निर्विचार हो जाओ कि द्वार तुम्हें दिखाई पड़ जाये। और द्वार सदा खुला है। विचार के कारण आंखें बंद हैं। यही इस सूफी कथा का सार है।.....osho

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