बुधवार, 16 दिसंबर 2015

= ९२ =

卐 सत्यराम सा 卐
हंस गियानी सो भला, अन्तर राखे एक ।
विष में अमृत काढ ले, दादू बड़ा विवेक ॥ 
पहली न्यारा मन करै, पीछै सहज शरीर ।
दादू हंस विचार सौं, न्यारा किया नीर ॥ 
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साभार ~ सुधि शुक्ला ~ !! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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“भगवान् !” - {१} -
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नारायण ! जिन में ये छः नित्य निवास करे उसे भगवान् कहते हैं । छः कौन - कौन ?
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।
ज्ञानं वैराग्यम् इत्येसां षण्णां भग इतीरणा ॥
जिस में उपरोक्त छः हो, वह भगवान् होता है । इन छह में परस्पर विरोध दिखता है । ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य - ये ही "भग" है । जहाँ ऐश्वर्य होगा वहाँ वैराग्य नहीं होता । ऐश्वर्य व वैराग्य का विरोध है । जहाँ धर्म होता है वहाँ लक्ष्मी नहीं होती, यह धर्म और श्री का विरोध है । इसी प्रकार यश और ज्ञान का भी विरोध है । ऐश्वर्य का मतलब सामर्थ्य होता है । दूसरे के ऊपर शासन करने की सामर्थ्य होना ही ऐश्वर्य है । ईश का अर्थ ही शासन करने वाला होता है । जहाँ शासन होगा वहाँ वैराग्य नहीं रहेगा । चुराई चीज़ के प्रति राग न होने से वैराग्यवान् कहता है कि "चोर ने चोरी की तो क्या हर्ज हुआ, आखिर मृत्युकाल में यमराज सब चुरा ही लेगा !" ऐसा व्यक्ति शासन नहीं कर सकेगा । गाँधी जी के शिष्य जिस समय से शासक बने तभी से शासन में कमी आई । वे कहते थे "उसने चोरी की भी तो बिना दण्ड के जाने दो ।" अपराधी को छोड़ने से शासन नहीं होता । बंगाल में कोई किसी को मार डालता था तो उसे दण्ड देने के बजाय कहते थे कि "उसे काम नहीं मिला, इसलिये उसने मार डाला । उस हत्यारे को नौकरी दिला दो, जेल में डालने से क्या फायदा ?" इस प्रकार शासन नहीं हो सकता । ऐश्वर्य और वैराग्य का आपस में विरोध होता है ।
नारायण ! इसी प्रकार धर्म और लक्ष्मी का भी विरोध है । महर्षि वेदव्यास जी ने महाभारत में बताया है कि लक्ष्मी कैसे मिलती है । यह बात किसी साम्यवाद की किताब में से हम आपको नहीं बता रहे हैं ! महाभारत का वाक्य है : -
नाछित्वा परमर्माणि, नाकृत्वा कर्म दुष्करम् ।
नाहत्वा मत्स्यघातीव भवन्ति महतीश्रियः ॥
महाभारतकार कहते हैं कि दूसरे के मर्मस्थलों का छेदन किये बिना धन की प्राप्ति नहीं हो सकती । मानलीजीये एक आदमी लड़की के ब्याह के लिये पाँच सौ रुपये ले गया । अब वह ब्याज भी पूरा नहीं देता । लोग जब हम से कहते हैं कि "अमुक आदमी उधार ले गया और अब वापिस नहीं दे रहा है ।" तो हमें हँसी आती है । हम पूछते हैं कि जब वह उधार ले गया था तब वह कितने साल का था ? जवाब में वे कहते हैं कि चालीस साल का था । हम कहते हैं कि जब चालीस साल में वह पाँच सौ रुपय नहीं बचा सका तो अगले चालीस साल में भी नहीं बचा सकेगा । फिर पाँच साल बाद कहाँ से वापिस लायेगा ? वह तो उस समय जरूरतमन्द था, ले गया । अब यदि वापिस चाहोगे तो मर्म - छेदन करना पड़ेगा । कर्ज़दार के घर और लुगाई के गहने बिकवाने पड़ेंगे । उसके पास नहीं है अतः छोड़ दोगे तो लक्ष्मीवान् नहीं हो सकोगे । दृसरा एक दृष्टान्त और लीजीये । एक आदमी ठण्ड से काँप रहा है । उसके पास कपड़ा नहीं है । आप उससे कहते हैं कि "पैसा दे दो, तब कम्बल दे दूँ ।" अगर उसके पास पैसा होता तो वह ठिठुरता हुआ क्यों आता ! यदि लक्ष्मी चाहते हैं तो कहना पड़ेगा कि "बिना पैसे के कम्बल नहीं दूँगा ।" और यदि उसके मर्म का छेदन न हो अतः कम्बल बिना पैसे के दे देंगे तो लक्ष्मी नहीं रह पायेगी ।
नारायण ! महाभारतकार दूसरी बात कहते हैं कि "नाकृत्वा कर्म दुष्करं ।" जिन कर्मों का शास्त्र ने निषेध किया है उन दुष्कर्मो को किये बिना भी धन संचय नहीं होता । यह आज की ही बात नहीं है । आज भी कर की चोरी न करें तो बचेगा क्या ? कर की चोरी झूठ बोले बिना संभव नहीं । "सत्यं वद" पर डटे रहने से धन नहीं मिलेगा । इसलिये निर्णय करना पड़ेगा कि क्या चाहिये ? नहीं करने लायक कर्म किये बिना धन नहीं मिलेगा । पुनः महाभारतकार ने कहा "नाहत्वा मत्स्यघातीव" मछलीमार की तरह अनेकों को मारकर अपना काम बनाने वाला बने बिना भी कोई धनी नहीं बन सकता है । एक कारखाने में पाँच सौ आदमी काम करते हैं । पाँच हज़ार का फायदा उसमें किस तरह होता है ? पाँच सौ आदमियों ने मिलकर पाँच हज़ार कमाये अर्थात् पाँच सौ आदमियों ने जितना पाया उससे दस रुपये के मूल्य का प्रतिव्यक्ति ने अधिक काम किया, पर उसके बदले का पैसा नहीं पाया । आपके फायदे का मतलब है कि उन लोगों ने जितने का काम किया, उससे कुछ कम पैसा आपने उन्हें दिया । अगर जितना उसने काम किया उतना ही दे देते तो आपके पास फायदा कहाँ से बचता ? जो जितने बड़े जाल में जितनी ज्यादा मछलियों को फँसायेगा, वह उनता बड़ा मछुआरा है । इसी प्रकार जो जितने ज्यादा मज़दूरों को काम कराके कम पैसा देने में फँसा सकेगा वह उतना बड़ा उद्योगपति होगा । आज भारत में तो सबसे बड़ा मछलीमार राजा - सांसद, विधायक ही हैं । दूसरे बेचारे उद्योगपति तो दस - बीस हजार को ही ठगते हैं, पर राजा - सांसद, विधायक तो करोड़ों भारतीयों को ठगते हैं । चुनावों में खर्च के लिये इतना पैसा कहाँ से आता है ? कोई राजा कमाता है क्या ? इतने ठाठ - बाट से रहने के लिये पैसे कहाँ से आते हैं । इन मछुओं ने सारी प्रजा रूपी मछलियों को फँसा रखा है । किसीको आयकर के नाम से तो किसीको बिक्री कर के नाम से ठगते है । आबकारी, आदि न जाने कितने करों से भी पेट न भरा तो महाब्राह्मणों की तरह मृत्युकर भी लेने लगे । जो जितना बड़ा जाल फैलायेगा, वह उतनी ही मछलियों को पकड़ सकेगा । धर्म और लक्ष्मी का विरोध ही रहता है ।
नारायण ! यश और ज्ञान का भी विरोध है । जितना - जितना मनुष्य का ज्ञान बढ़ता है, उतनी - उतनी उसकी संसार के प्रति इष्टबुद्धि हटती है । यश उसी का होता है जो संसार में इष्टबुद्धि करे । यश का मतलब है दूसरों की प्रशंसा, और वह तब मिलती है जब जिसको दूसरा ठीक समझे, वह किया जाय । चूँकि संसार में अतिकतर लोग मूर्ख हैं, इसलिये मूर्खता करने से ही वे लोग प्रसन्न होंगे एवं प्रशंसा करेंगे । गर्मी पड़ रही है । गर्मी में शरीर को हवा लगना अच्छा है । मूर्ख कहता है कि उस समय भी शरीर में वैसे ही वस्त्र पहनो जैसे सर्दी में । बुद्धिमान् कहता है कि यह कैसी अजीव बेवकूफी है । जो कपड़ा तो ठण्ड से बचने के लिये था, ठण्ड नहीं है तो उसे क्यों पहना जाय । लेकिन मूर्ख कहेगा कि पहनना ज़रूरी है । इसी मूर्खता का नाम उसने "विन्यास{fashion, style} रख छोड़ा है । मूर्खों के समाज मेँ मूर्ख बनने पर ही यश की प्राप्ति होगी। यदि मूर्खता छोड़ी तो सब मूर्ख मिलकर अपयश ही करेंगे । उनकी दृष्टि में ऐसा आदमी बेकार का है । फालतू है ।
नारायण ! एक कहानी महात्माओं में प्रसिद्ध है : एक हंस जेठ मास की धूप में दक्षिण से उड़कर मानसरोवर जा रहा था । रास्ते में अत्यन्त गर्मी से व्यथित होने के कारण एक घोर वन में सघन छायादार वृक्ष पर जा बैठा और कहने लगा कि "बड़ी गर्मी है । ज्येष्ठ का सूर्य इस वर्ष बड़े ही जोर से गर्मी तप रहा है ।" वृक्ष के दूसरे पक्षी बोल पड़े कि "अरे! तू झूठा यहाँ कहाँ से आ गया ?" वे सब उल्लू थे । कहने लगे, "गर्मी तो है, पर यह सूर्य व धूप कहाँ से आ गई ? इन्हें किसने देखा है ?" हंस ने कहा "क्या तुम्हें नहीं दिखता कि सूर्य कितना चमक रहा है ?" उल्लू बोले, "हमें बेवकूफ बनाता है । सूर्य कहाँ है ? चारों तरफ अंधेरी ही है ।" हंस ने समझाया कि गर्मी लगती है तो उसका कोई कारण होगा । वे बोले, "बिना कारण के भी गर्मी हुआ करती है । गर्मी का स्वभाव है कि बढ़ जाया करती है, और फिर अपने आप कम हो जाती है । इसलिये तू हमें बेवकूफ न बना सच्ची बात कहा कर ।" हंस ने कहा कि "सूर्य तो है, तुम्हारी आँख खराब होगी। अतः नहीँ दिखता होगा । दूसरों से पूछ देखो ।" दूसरे से पूछा तो उन्होंने भी कहा कि सूर्य नाम की कोई चीज नहीं है । क्योंकि वहाँ बाकी सब उल्लू थे । किसी ने कहा कि पैंतीस साल हो गये, किसी ने कहा चालीस साल हो गये, पर चारों तरफ घूम आने पर भी सूर्य कहीं नहीं मिला है । इस प्रकार उन्होंने एक राय से निर्णय किया कि सूर्य नाम की चीज़ नहीं है । सभी ने उस हंस से कहा कि "तुम मान लो । नहीं तो झूठ बोलने वाले को हम सब मिलकर पीटेंगे ।" अब बिचारा हंस वहाँ से धूप में ही उड़ चला । अतः मूर्खों में विद्वान् को पिटना पड़ता है अथवा एकान्त में भाग कर जान बचानी पड़ती है ।
नारायण ! विवेकी हंस है । जो नीर - क्षीर का विवेक करे, सत्य - असत्य का विवेक करे, उसे हंस कहते हैं । जैसे वहाँ चिलचिलाती धूप में उड़ते - उड़ते हंस ने कहीं आश्रय ग्रहण किया, इसी प्रकार संसार दवाग्नि से तप्त व्यक्ति जब कहता है कि संसार में अज्ञानजन्य शोक मोह राग द्वेष की भयंकर अग्नि इस जेष्ठ रूपी अहंकार की स्थिति में पड़ रही है तब संसार के बहुमत से सिद्ध किया जाता है कि शोक आदि तो हैं पर उनका कारण अज्ञान नहीं है । बिना कारण के रागद्वेषादि स्वभाव से ही हो जाते हैं । तब अकेला ही उन सब को छोड़कर समाधि के अभ्यास के लिये एकान्त शान्त स्थान की ओर उड़ जाता है ।
सावशेष ..... नारायण स्मृतिः

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