गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

पद. ४१९

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
४१९. रंग ताल ~
मोहन माधव कब मिलै, सकल शिरोमणि राइ ।
तन मन व्याकुल होत है, दरस दिखाओ आइ ॥ टेक ॥ 
नैन रहे पथ जोवताँ, रोवत रैनि बिहाइ ।
बाल सनेही कब मिलै, मोपै रह्या न जाइ ॥ १ ॥ 
छिन - छिन अंग अनल दहै, हरिजी कब मिलि हैं आइ ।
अंतरजामी जान कर, मेरे तन की तप्त बुझाइ ॥ २ ॥ 
तुम दाता सुख देत हो, हाँ हो सुन दीनदयाल ।
चाहैं नैन उतावले, हाँ हो कब देखूं लाल ॥ ३ ॥ 
चरन कमल कब देख हौं, हाँ हो सन्मुख सिरजनहार ।
सांई संग सदा रहौं, हाँ हो तब भाग हमार ॥ ४ ॥ 
जीवनि मेरी जब मिलै, हाँ हो तब ही सुख होइ ।
तन मन में तूँ ही बसै, हाँ हो कब देखूं सोइ ॥ ५ ॥ 
तन मन की तूँ ही लखै, हाँ हो सुन चतुर सुजान ।
तुम देखे बिन क्यों रहौं, हाँ हो मोहि लागे बान ॥ ६ ॥ 
बिन देखे दुख पाइये, हाँ हो इब विलम्ब न लाइ ।
दादू दरशन कारणैं, हाँ हो सुख दीजे आइ ॥ ७ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर से दर्शनार्थ विनती कर रहे हैं कि हे मनमोहन ! माधव ! हमारे स्वामी, आप दया करके हमसे कब मिलोगे ? हमारा तन - मन व्याकुल हो रहा है । हे सर्व के शिरोमणि राजान् पति राजा ! आप आकर हमें अपना दर्शन दिखाइये । आपका मार्ग देखते - देखते हमारे नेत्र थकित हो रहे हैं और रुदन करते - करते हम उम्र रूपी रात्रि बिता रहे हैं । हे गर्भवास के साथी ! हमारी रक्षा करने वाले ! अब आपके बिना हमसे इस शरीर में रहा नहीं जाता है । एक - एक क्षण में विरह रूपी अग्नि हमारे शरीर को जला रही है । हे प्राणपति हरि जी ! आप कब आकर, हमसे मिलेंगे । हे अन्तर्यामी ! आप हमारे अन्तर विरह की तप्त जानकर इस तन की तप्त को बुझाइये । आप तो अपने आत्मीयजनों को सुख देने वाले हो । हाँ, तो हे दीन दयाल ! हमारी भी विनती सुनिये । अब तो हमारे नेत्र आपके दर्शन जल्दी ही करना चाहते हैं । हाँ, तो हे लाल ! आपके चरणारविन्द का हम कब दर्शन करेंगे अथवा आप हमें अपने चरण - कमलों का कब दर्शन कराओगे ? हाँ, तो हे सिरजनहार ! अब आप हमारे सन्मुख आइये । हे स्वामी ! आपके संग हम सदा रहें । हाँ, तो फिर हे प्रभु ! हम अपने भाग्य की क्या सराहना करें ! हे हमारे जीवन ! जब आप हमसे मिलोगे, तभी फिर हमको आपके दर्शनों से सुख प्राप्त होगा । आप तो हमारे तन - मन में निवास कर रहे हो । हाँ, तो हे प्रभु ! हम आपके स्वरूप को कब देखेंगे ? आप हमारे तन - मन की सब जानते हो । हाँ, तो हे चतुर सुजान ! आप फिर हमारी विनती सुनिये । हे नाथ ! आपके देखे बिना हम इस शरीर में कैसे रहें ? हाँ, आपके विरह - बाण हमें सता रहे हैं । आपके दर्शन किए बिना हम दु:ख पा रहे हैं । हाँ, तो हे प्रभु ! अब क्यों विलम्ब करते हो ? हे नाथ ! आपके दर्शनों के लिये हम अति व्याकुल हो रहे हैं । हाँ, तो हे प्रभु ! अब आप हमारे हृदय में आकर दर्शन दीजिए

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें