बुधवार, 16 दिसंबर 2015

= ९१ =

卐 सत्यराम सा 卐
सद्गुरु पशु माणस करे, माणस तैं सिध सोइ ।
दादू सिध तैं देवता, देव निरंजन होइ ॥ 
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साभार ~ Vijay Divya Jyoti ~ रूपान्तरण 
THE TRANSFORMATION IN AND OF LIFE. 
यदि हम कोयले से हीरा बनने के यात्रा पर गौर करें तो समझ में आता है की कोयले के विकास की यात्रा का अंतिम पड़ाव हीरा है अर्थात हीरे और कोयले में बुनियादी तत्व के आधार पर कोई भी भेद नहीं है। वास्तव में कोयला ही हजारों-लाखों वर्ष जमीन में दबा रहकर हीरा बन जाता है। लेकिन क्या हीरे और कोयले का स्वभाव एक है? जरा भी एक नहीं है। कहां कोयला, कहां हीरा! लेकिन हीरा बनता है कोयले से ही; वह कोयले की ही परम नियति है। 
इसी प्रकार मनुष्य प्रारम्भ में अपने आप को जहां पर पाता है वो स्थिति कोयले जैसी है और जहां बुद्ध जैसे, महावीर जैसे, कृष्ण जैसे व्यक्ति अपने को पहुंचाते हैं, हीरे जैसे हैं। फर्क स्वभाव का नहीं है, फर्क विकास का है। प्राथमिक स्वभाव हम सबको एक जैसा मिला है - क्रोध है, काम है, लोभ है। मोह है, तृष्णा है, लेकिन यह अंत नहीं है, प्रारंभ है। और इस प्रारंभ को ही अगर हम अंत समझ लें, तो यात्रा बंद हो जाती है। मनुष्य में भी जो परिवर्तन की यात्रा शुरू होती है वो मन के के परिवर्तन से शुरू होती है, मन का परिवर्तन ही ध्यान है और ध्यान से ही मनुष्य आदमी(कोयला) से बुद्ध(हीरा) बनता है क्योंकि ध्यान की यात्रा के माध्यम से ही वो मन के तल से आत्मा के तल तक यानि स्वयं तक पहुंचता है। ध्यान की यात्रा बिलकुल वही है जो कोयले से हीरे बनने की।

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