शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

पद. ४२०

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४२०.(सिंधी) वैराग्य । वर्ण भिन्न ताल ~
ये खूहि पयें सब भोग विलासन, तैसेहु वाझौं छत्र सिंहासन ॥ टेक ॥ 
जन तिहुंरा बहिश्त नहिं भावे, लाल पलिंग क्या कीजे । 
भाहि लगे इह सेज सुखासन, मेकौं देखण दीजे ॥ १ ॥ 
बैकुंठ मुक्ति स्वर्ग क्या कीजे, सकल भुवन नहिं भावे । 
भठी पयें सब मंडप छाजे, जे घर कंत न आवे ॥ २ ॥ 
लोक अनंत अभै क्या कीजे, मैं विरहीजन तेरा । 
दादू दरशन देखण दीजे, ये सुन साहिब मेरा ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव वैराग्य दिखा रहे हैं कि हे परमेश्‍वर ! आपके दर्शन बिना इस संसार के जितने भी भोग विलास हैं, सब कुए में गिरो । हमें इनकी कोई इच्छा नहीं है । और वैसे ही सोने के छत्र सहित सिंहासन पर बैठना भी हमारे लिये व्यर्थ है । आपके बिना भक्त को बहिश्त भी प्रिय नहीं लगता, हे प्रियतम ! फिर हम लाल सुहाग पलंग का क्या करें ? हमको तो आपका दर्शन देखने दो । वैसे ही बैकुण्ठ का वास और सुख का क्या करें तथा चार प्रकार की मुक्तियों का भी क्या करें और स्वर्ग का क्या करें ? तीन लोक और चौदह भुवन के सम्पूर्ण सुखों का हम क्या करें ? ये हमको प्रिय नहीं लगते । और मण्डप महलों का वास ये सब भट्टी में पड़ो । जब तक हे कंत ! आप हमारे हृदय रूपी घर में नहीं प्रकट होते, तब तक तो हम दुखी हो रहेंगे । अनन्त लोकों का वास और अभय पद का क्या करें ? हम तो आपके विरहीजन भक्त हैं । आपके दर्शनों की प्यास लगी है । हे हमारे साहिब ! यह हमारी पुकार सुनिये और अब आपका दर्शन देखने दो

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