卐 सत्यराम सा 卐
दुर्लभ दर्शन साध का, दुर्लभ गुरु उपदेश ।
दुर्लभ करबा कठिन है, दुर्लभ परस अलेख ॥
=============================
साभार ~ Vipin Tyagi ~
इनसान के सामने हमेशा एक सवाल रहा है: 'क्या परमात्मा है ? यदि है तो वह कौन है या क्या है ? उसके साथ सम्पर्क कहाँ और कैसे किया जा सकता है ? क्या उस परमात्मा ने अपने बारे में इनसान को कभी कुछ बताया है ?' हालाँकि ऐसे सवालों का ज़बाब देने के लिए अनेको ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं. लेकिन केवल एक जबाब के अलावा इसका कोई ज़बाब नहीं हो सकता । इसका सही जबाब सिर्फ सतगुरु ही दे सकते हैं । बाकी सब जबाब केवल अनुमान और कल्पना पर आधारित हैं ।
अब हम परमात्मा से मिलना चाहते हैं लेकिन मिलें तो मिले कैसे ? परमात्मा के बारे में बहुत कुछ सुनते हैं, जैसे कि वह एक शहंशाह, जिस से मिलने के लिए हमें कोई माध्यम चाहिये जैसे कि कोई सतगुरु, मार्गदर्शक या धर्म प्रचारक जो उस अन्तर के रास्ते की वाकफियत रखता हो । परमात्मा से मिलाप के बारे में मनुष्य ने कितनी धारणाएँ बना रखी हैं । दर्शनशास्त्र की सभी धारणाओं के विद्धान इससे सहमत हैं कि जीव के अस्तित्व का मुख्य उद्देश्य परमात्मा से मिलाप है । पर मिलाप किया जाये तो कैसे ? इस विषय पर उनकों कोई सही जानकारी नहीं है । इसलिए वह पढ़ते-पढ़ाते हैं, चर्चा-गोष्ठी करते हैं और फिर बहुत से लोगों को उपदेश देने लगते हैं । पर यह परमात्मा का ही बनाया हुआ क़ानून है कि बिना सतगुरु के द्वारा बताये गए साधन यानी संतों के मार्ग के सिवा न तो इस धरती पर कभी किसी का परमात्मा से मिलाप हुआ है और न ही साक्षात्कार । किसी अन्य साधन से यह मिलाप संभव ही नहीं है ।
प्राचीन वैदिक युग के महान ऋषियों ने कहा है : 'तीन वस्तुएँ संसार में बहुमल्य और दुर्लभ हैं जो किसी इनसान को सौभाग्यवश परमात्मा की कृपा से प्राप्त होती हैं । वह हैं : मनुष्य जन्म, मुक्ति की लालसा और पूर्ण सतगुरु की शरण ।'
यह सवाल बार-बार लगातार पूछा जाता है - सतगुरु की क्या आवश्यकता है ? जब इनसान इतनी तरक्की कर चुका है तब उसे किसी की क्या ज़रुरत है ? आम आदमी, विशेषकर पश्चिमी सभ्यता का जिज्ञासु अपने अहंकार के कारण हमेशा यह कहने के लिए तैयार रहता है कि उसे किसी प्रकार की सहायता की ज़रूरत नहीं है । वह बड़े गर्व से कहता है, 'मैं स्वयं अपने भाग्य का निर्माता हूँ । मैं अपने भाग्य का खुद विधाता हैं और उसको खुद दिशा दूँगा । मुझे ईश्वर तक पहुँचने का सीधा अधिकार है । मैं कोई अपंग नहीं हूँ जो मुझे किसी के सहारे की ज़रुरत पड़े । क्या इतने सारे संसार के आविष्कार हमने नहीं किये, तो परमात्मा को खोजना क्या मुश्किल चीज़ है?'
यह एक अहंकार भरा कथन है जो किसी राजा को ही शोभा देता है भिखारी को नहीं । और यह अहंकार उनका मालिक से मिलने का रास्ता बंद कर देता है । जब मैं अपने घर की गली में घुसता हूँ तो एक कुत्ता गली के राजा की अदा में अपनी पीठ को सिकोड़ कर मुझे धमकाने के लिए जोर से गुर्राना शुरू कर देता है और मैं उसके अधिकारों का आदर करते हुए मैं उससे थोड़ा बच कर चलने लगता हूँ, जबकि हर शैतान बच्चा उसको लात मार कर निकलता है और वो उन्हें देखकर दुम दबा कर भाग जाता है । इसलिए अगर यदि कोई अपने आप को पहुँचा हुआ समझनेवाला अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करना ठीक समझे - यहां तक सतगुरु से भी स्वतंत्रता की, तो मैं उनके दॄष्टिकोण का सम्मान करता हूँ । पर मुझे संदेह हैं कि वे जीवन की समस्याओं से विचलित नहीं होंगें । कैसे कैसे दुःख दुनिया में हैं, जिन्हें देखकर रूह काँप उठती है । ऐसे लोग इस अवसर का लाभ उठाने की बजाय अपने हाथों से अपनी दुर्गति कर बैठते हैं और परमात्मा के द्वार अपने लिए बंद कर बैठते हैं ।
शायद इसलिए ऐसा है कि आजकल के लोगों की अहंकारी मनोवृति के लिये ढोंगी साधू, पाखण्डी धर्म प्रचारक ज़िम्मेदार हैं । देखा जाये तो यह सही और वाज़िब प्रतिक्रिया है । लेकिन उनको यह ज़रूर समझना चाहिये कि पूर्ण सतगुरु और धर्म प्रचारक में इतना फ़र्क़ होता है जितना दिन और रात में । धर्म प्रचारक तो ग्रन्थो के रट्टू तोतें हैं जो बिना अनुभव के उपदेश देते हैं । सतगुरु का उपदेश उनके निजी अनुभव पर आधारित है । सतगुरु का काम सिर्फ उपदेश देना नहीं है बल्कि उनका कार्यक्षेत्र बहुत विशाल है । वह अपने शिष्य की हर कदम पर रहमुनाई करते हैं ।
अगर आप को भारत से अमेरिका जाना हो तो आप को हवाई-जहाज से सफर करना पड़ेगा । अब एक अनुभवी पायलट आता है जो उस मार्ग से कई बार गया है और उसके पास उस क्षेत्र में प्रवेश करने तथा बीच में आनेवालों मुकामों पर रुकने का लाइसेंस भी है । वह इस उड़ाने की सेवा के लिए तैयार है पर हमारा अहंकारी मन कहता है, 'नहीं, धन्यवाद, मैं अपना विमान खुद उड़ाऊँगा । मुझे किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं । उसे यह भी नहीं मालूम कि विमान को चलाते कैसे है ? जहाज के दरवाज़े पर ताला लगा है और इसके पास उसकी चाबी नहीं है । पायलट ने बुद्धिमानी का परिचय देते हुए विमान को ताला लगा रखा है, क्योंकि अगर कोई अनाड़ी व्यक्ति यह जाने बिना कि क्या करने जा रहा, यात्रा शुरू करता है, तो निश्चित अपने लिए मुसीबत खड़ी कर लेगा । उन लोगों की भी स्थिति ऐसी है जो ये मान लेते हैं कि वे खुद आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक पहुँच सकते हैं, जब कि उनको यह भी पता नहीं कि शुरुवात कहाँ से करनी है । अगर कोई व्यक्ति शुरुवात कर भी ले, तो किसी हालत में यात्रा नहीं कर पायेगा । मार्ग में सैंकड़ों बाधाएँ हैं, एक अनुभवहीन व्यक्ति के लिए इन बाधाओं का पार करना संभव नहीं है । आखिर जब मन को समझ आती है, तो पायलट से नम्रतापूर्वक कहता है: 'मुझे अपना शिष्य बना लो और उड़ान भरना सिखाओ ।' एक सतगुरु को पाना बहुत ही नसीब की बात है । वह ही वह महबूब है जो जन्मों की तलाश के बात मिलता है ।
एक वो महबूब है जो नज़र-अन्दाज़ करे मुझे कितने जन्मों से,
एक मैं हूँ जो दिलो-जान से क़ुर्बान हूँ उसके नूरानी तसव्वुर की ।
उसके नूरानी चेहरे की मेहर भरी नज़र मन की कालिख को हटाने के लिए काफी होती है ।
उस के चेहरे का नूर करे बयाँ कहानी उसकी,
पर मुक़ामे - हक़ का किस्सा सुनूं ज़ुबानी उसकी ।
अगर एक बार ऐसे मुर्शिद का दया भरा हाथ अपने सिर पर आ गया और उसकी रहमत भरी नज़र शागिर्द पर पड़ गयी तो उसके दीदार के सामने सब कुछ फीका पड़ जाता है ।
इतना मशरूफ हूँ अब दिलवर के तसव्वुर में,
कि उसके ज़िक्र में साँस लेने की फुर्सत नहीं होती ।
जब शिष्य गुरु-पद पर पहुँच कर सतगुरु के शब्द-स्वरुप नूरानी और चुंबकीय सूक्ष्म रूप के दर्शन करता है और अमृत के मानसरोवर में अमृत-पान करता है तब यहाँ के सब झूठे लगाव हट जाते हैं । लेकिन दर्शन का मतलब देखना नहीं है । दर्शन दिए जाते हैं, लिए नहीं जाते । दर्शन तब नसीब होते हैं जब हम सतगुरु के हुक्म में चलते हैं और अपना अहम त्याग देते हैं । अपना मन सतगुरु को भेंट कर देते हैं और वह तभी कर सकते हैं जब मन अपने वश में हो । जो चीज़ अपनी नहीं, उसे कैसे किसी को भेंट कैसे कर सकते हैं ? जब मनमत गुरुमत में बदल जायेगी तब ही शब्द-स्वरुप गुरु के दर्शन होते हैं ।
ऐसा बदला हूँ तेरे दर पे आबे-हयात पीकर,
इस जहाँ से दिल लगाने की चाहत नहीं होती ।
अब किसी के आने या जाने की फिक्र नहीं मुझको,
अब किसी शख्स से दिल लगाने की की आदत नहीं मुझको ।
जब तक मन अपने वश नहीं आयेगा तब तक मायूसी ही बनी रहेगी और मन खुदा से बेरुख ही रहेगा ।
तुम पूछते हो सबब मेरी मायूसी का,
भला कैसे बाँट लूँ ग़म सनम की बेरूखी का ।
सभी युगों में इनसान ने सत्य की खोज करते हुए मनुष्य ने परमात्मा तक पहुँचने के मार्ग की खोज या इस विषय को कुछ हद तक समझने की कोशिश की है । परंतु जो कुछ थोड़ी-बहुत सफलता उसे मिली है, वह अपनी समस्या साथ लेकर आई है । यह खोज करते-करते इनसान इधर-उधर भटकाने वाले रास्तों में चला गया है, फिर भी इस खोज से मानव जाति धीरे-धीरे प्रकाश की तरफ बढ़ रही है । प्राचीन ऋषियों से लेकर ज़रदुश्त और मैजाई तक, हरमीज़ और प्लेटो, कांत और एडवर्ड तथा नोर्थ्रोप आदि सभी ने अंतर की पीड़ा और चीत्कार के रूप में ये सवाल बार-बार दोहराये हैं, परंतु अपनी आवाज़ की गूँज की तरह ये प्रश्न भी केवल प्रश्न ही बने रहे । परमात्मा को कौन जान सकता है जब तक वह खुद न चाहे । जब वह चाहेगा तो इनसान आध्यात्मिक ऊँचाइयों पर पहुँचेगा, जहाँ परमात्मा के दर्शन किये जा सकते हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें