शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)५२ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= अथ विन्दु ५२ दिन ३४ =*
*= मूर्ति पूजा संबन्धी विचार =*
३४वें दिन प्रातःकाल ही अकबर बादशाह सत्संग के लिये बाग में दादूजी पास आया और दादूजी के दर्शन करके अति प्रसन्न हुआ तथा हाथ जोड़कर प्रणाम किया फिर सामने बैठकर बोला - स्वामिन् ! सभी हिन्दू मूर्ति पूजा करते हैं किंतु आपको कभी मूर्ती की पूजा करते नहीं देखा है, आप मूर्ति पूजा क्यों नहीं करते हैं ? इसका कारण मुझे बताने की कृपा अवश्य करें ।
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अकबर का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी बोले -
"माया रूपी राम को, सब कोई ध्यावे ।
अलख आदि अनादि है, सो दादू गावे ॥
अन्य सब तो मायारूप अर्थात् मायिक पदार्थों से बनी हुई मूर्तियों को ही उपासना करते हैं किंतु हम तो जो परब्रह्म मन वाणी का अविषय है, सर्व का आदि कारण और सर्व जिसके विवर्त्त रूप कार्य हैं तथा स्वयं अनादि है, उसी परब्रह्म के यश तथा नामों का गान करते रहते हैं । अतः हम मूर्ति पूजा न करके जिसकी मूर्ति बनाई जाती है उसी की उपासना निरंतर करते रहते हैं, इस से हमें मूर्ति पूजा की आवश्यकता नहीं हैं, इसलिये नहीं पूजते, जिनको आवश्यकता होती है वे पूजते हैं ।
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ब्रह्मा का वेद विष्णु की मूर्ति, पूजे सब संसारा ।
महादेव की सेवा लागे, कहां है सिरजन हारा ॥
ब्रह्मा द्वारा प्रचारित वेद ने त्रिगुणात्मक संसार के लिये जो विधि विधान बना दिये हैं, उनके द्वारा त्रिगुणात्मक उपास्यों की उपासना में सांसारिक प्राणी लगे हुये हैं । उनमें मुख्य ब्रह्मा विष्णु और महादेव हैं. इन तीनों की ही उपासना प्राणी प्रायः करते हैं । सांसारिक प्राणियों के हृदय में सिरजनहार अर्थात् विवार्त्तोपादान परब्रह्म का ध्यान कहाँ है ? अर्थात् सकामी प्राणी परब्रह्म की उपासना करने में समर्थ नहीं होते हैं, निष्कामी संतजन ही परब्रह्म की अभेदरूप से पराभक्ति करते हैं ।
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माया का ठाकुर किया, माया की महामाइ१ ।
ऐसे देव अनन्त कर, सब जग पूजन जाइ ॥
परब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को न जानने के कारण सांसारिक प्राणी माया का अर्थात् सुवर्ण, चाँदी आदि मायिक पदार्थों की मूर्ति बनाकर ठाकुरजी मान लेते हैं और उसी माया की अर्थात् सुवर्ण, चाँदी आदि की महामाया १ लक्ष्मी की मूर्ति बना लेते हैं, फिर मंदिरों में स्थापन करके उपासना करते हैं और भावनानुसार लाभ प्राप्त करते हैं । हृदयस्थ परमात्मा की उपासना सकामी प्रायः नहीं कर पाते हैं । उक्त प्रकार ही अन्य अनन्त देवताओं की मूर्तियां बनाकर मंदिरों में स्थापन करके सब सकामी जन उनकी पूजा करने के लिये मंदिरों में जाते हैं ।
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माया बैठी राम हो, कह मैं मोहनराय ।
ब्रह्मा विष्णु महेश लूं, जोनी आवे जाय ॥
माया बैठी राम हो, ताको लाखे न कोय ।
सब जग माने सत्य कर, बड़ा अचंभा मोहि ॥
सांसारिक प्राणियों के लिये माया ही मूर्तिरूप में राम बनकर मंदिर में बैठी है और कहती है, मोहित करने वालों मैं राजारूप हूं । ब्रह्मा, विष्णु, और महादेव तो जन्म लेकर आते हैं तथा जाते हैं किंतु मैं तो अनादि हूँ । माया इस प्रकार राम बनकर बैठी है कि उसको कोई भी अज्ञानी मायारूप से नहीं देखता तथा उस माया का आड़ा पड़दा होने से उस परब्रह्म को कोई भी अज्ञानी नहीं देख सकता । मुझे यह अति आश्चर्य होता है कि जगत के सब अज्ञानी प्राणी उस माया को ही सत्य परब्रह्म मानकर परब्रह्म से विमुख हो रहे हैं ।
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अंजन किया निरंजना, गुण निर्गुण जाणे ।
धर्या दिखावे अधर कर, कैसे मन माने ॥
निरंजन की बात कह, आवे अंजन मांहिं ।
दादू मन माने नहीं, स्वर्ग रसातल जांहिं ॥
अज्ञानी प्राणियों ने अंजन (माया) को ही निरंजन (माया रहित ब्रह्म) बना रक्खा है । गुणयुक्त को ही निर्गुण जान रहे हैं । धर्या अर्थात् मायिक सांसारिक वस्तु सुवर्ण, चाँदी आदि को ही अधर अर्थात् ब्रह्मरूप मानकर साधारण जनता को दिखाते हैं । उनकी उक्त बातों को विचार शील संतों का मन कैसे मानेगा ? अर्थात् नहीं मान सकेगा । कुछ लोग बातें तो निरंजन ब्रह्म की कहते है फिर समय पर अंजन (माया) में ही आकर फंसते हैं । उनकी बातों को विचार शील संतों का मन कैसे मानेगा ? वे तो स्वर्ग में जाने की बात कहकर रसातल में जाने का व्यवहार करते हैं । अतः जैसा करते हैं, वैसा ही फल प्राप्त करेंगे ।
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दादू कहणी और कुछ, करणी करे कुछ और ।
तिन तैं मेरा जीव डरे, जिनके ठीक न ठौर ॥
जो कहते तो अन्य बातें हैं और कर्तव्य कथन से भिन्न ही करते हैं । उनसे हमारा मन डरता ही रहता है । उनका तो ठीक ठिकाना भी नहीं है ।
(क्रमशः)


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