सोमवार, 7 दिसंबर 2015

= ८३ =


卐 सत्यराम सा 卐
राम विमुख जुग जुग दुखी, लख चौरासी जीव ।
जामै मरै जग आवटै, राखणहारा पीव ॥ 
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साभार ~ नरसिँह जायसवाल ~

सुमिरन करहु राम का,..... छाड़हु दुख की आस। 
तर ऊपर धरि चापि हैं, जस कोल्हु कोटि पिचास ॥
कबीरदास कहते हैं कि हृदय में रमने वाले अविनाशी राम का स्मरण-मनन करो। दुखदायी मायिक विषय भोगों एवं मन की कल्पनाओं की आशा छोड़ दो(क्योंकि उनमें सच्चा सुख नहीं है) ! अन्यथा, जैसे कोल्हू के असंख्य फेरों में वस्तुएं दबती-पिसती हैं, वैसे तुम माया रूपी कोल्हू के नाना फेरों में अथवा कर्मभोग रूपी कोल्हू के फेरों में नीचे-ऊपर(सब ओर) से पेरे जाओगे। अर्थात चौरासी के विभिन्न योनियों में जन्मते-मरते फिरोगे और अनेक दुख-भोगों को भोगोगे।
संत कबीरदास !
सौजन्य -- बीजक रमैनी !


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