रविवार, 27 दिसंबर 2015

= १२४ =

卐 सत्यराम सा 卐
साधु महिमा महात्म
दादू मैं दासी तिहिं दास की, जिहिं संगि खेलै पीव ।
बहुत भाँति कर वारणें, तापर दीजे जीव ॥
टीका ~ अपने को उपलक्षण करके ब्रह्मऋषि गुरुदेव उपदेश करते है कि हे जिज्ञासुओं ! हम सभी जिज्ञासु उन ब्रह्मनिष्ठ संतों के सेवक हैं, जिन्होंने स्वस्वरूप को साक्षात्कार कर लिया है, ऐसे ब्रह्म - परिचय संतों की हम किस प्रकार वन्दना करें ? क्योंकि अब हमने तो सर्वस्व उनके चरणों में न्यौछावर कर दिया है ॥७६॥
वासुदेवस्य ये भक्ताः शान्तास्तद्वतमानसाः । 
तेषां दासस्य दासोऽहं भवे जन्मनि जन्मनि ॥
साधु एक चोपाड़ में, उतर्यो लोक समाज । 
मारन उठे असुर दोइ, मैं नरसिंह तव काज ॥
दृष्टान्त ~ एक संत एक गाँव में चौपाल में आकर ठहरे । बहुत से गाँव के लोग बैठे थे । उनमें से कई लोग संत को बोले ~ “यहाँ से उठ जा ।” दूसरी जगह बैठे, तो फिर बोले ~ “यहाँ से उठ जा” । ऐसे तंग करने लगे । उन्हीं में से फिर दो असुर, महात्मा को मारने को खड़े हो गये । इतने में ही तीसरे पुरुष में परमेश्‍वर प्रकट हो गये और वह बोला ~ “हे राक्षसों ! यह महात्मा तो प्रहलाद है और तुम हिरणाकुश हो और मैं नरसिंह हूँ । तुम्हारे को चीर कर डाल दूंगा ।” इस प्रकार परमेश्‍वर अपने आत्मीयजनों की रक्षा करने को तत्पर रहते हैं । जो परमेश्‍वर के साथ खेलते हैं, उन भक्तों की परमेश्‍वर रक्षा करते हैं ।

सालेरी तन मन तज्यो, हरि संतां के भाव । 
ता पुण्य परताप से, लंकापति कै जाव ॥
दृष्टान्त ~ एक संतों की मण्डली नगर में पहुँची । सत्संग होने लगा । एक भक्त ने खीर की रसोई का संतों को सामान दिया । भंडारी एक पेड़ के नीचे खीर बना रहा था । ऊपर से काला सांप खीर के कढाह में गिर गया । भंडारी को यह पता नहीं चला । उसी पेड़ पर एक सालेरी(गिलहरी) यह देख रही थी । गिलहरी ने सोचा, ‘संत खीर खाएँगे, तो सब मर जायेंगे, इन संतों की जान किस प्रकार से बचाऊँ ?” जब संत लोगों ने जीमने को पंगत लगाई, तब उनके देखते - देखते ही सालेरी खीर के कढाह में कूद गई । संत लोग कहने लगे, अब तो यह खीर अपने काम की नहीं है । इसको जमीन में गिरा दो, कोई पशु खा लेंगे । ज्यों ही खीर को जमीन में गिराया, तो काला नाग कढाह के पैंदे में निकला । संत लोगों ने विचार किया कि इस सालेरी ने हमारी जान बचाई है । तब सभी संतों ने उसको वरदान दिया कि जा, तेरे को ऐसा पति मिलेगा, जिसे राम के बिना कोई नहीं मार सकेगा । उन संतों के वरदान से वह सालेरी एक राज - कन्या बनी । फिर वह वैराग्य को प्राप्त होकर तप करने चली गई । जिस जंगल में ऋषि - मुनि रहते थे, वहीं वह रहने लगी और ऋषि - मुनियों की सेवा करती । जहाँ ऋषि - मुनि रहते थे, वह जंगल बालि के कब्जे में था । बालि ऋषियों की देख - रेख किया करते थे, अर्थात् राक्षसों से रक्षा किया करते थे । एक रोज एक मुनि ने स्वप्न - दोष के कारण अपनी कोपीन उतार कर रख दी और फिऱ दूसरी कोपीन धारण कर ली । वह कोपीन वैसे ही पड़ी रही । सवेरे स्नान करके पूजा में बैठ गये । कोपीन धोना भूल गये । जब पूजा से उठे, इस लड़की ने आकर नमस्कार किया । आपने कहा ~ ‘यह कोपीन धो ला ।” लड़की ने कोपीन धोई । दाग न छूटा तो, दातों से पकड़ कर दाग छुड़ाने लगी । फिर कोपीन ला कर सुखा दी । लड़की को गर्भ रह गया । कुछ दिनों में ऋषियों को बड़ी भारी चिन्ता हो गई कि हे विधाता ! यह क्या हुआ ? अब तो यह लड़की हमारे पास रहने के लायक नहीं । किसी के साथ इसको कर दें । हमारी रक्षा बालि करता है, बालि को ही दे दें, तो यह राज - रानी होगी । इतने में मयदानव आ गया । कहने लगा ~ लाओ, राजस्व दो, तुम रावण के राज में रहते हो । ऋषियों ने कहा ~ हमारे पास कर देने को कुछ भी नहीं है । इतने में वह राज - कन्या आ गई । मयदानव बोला ~ “यह कौन है ?” ऋषि ~ राज - कन्या है । बोला ~ मैं इसे ले जाऊंगा । ऋषियों ने कहा कि तुम ले जाओ । वह उस राज - कन्या को लेकर लंका की ओर चला । पीछे से बालि आ गया । ऋषि लोग बोले ~ बालि ! तुम्हारे लिए, हमने बहुत अच्छी चीज रखी थी, परन्तु वह मयदानव अभी ले गया । बालि ने तुरन्त मयदानव को रास्ते में घेर लिया और उस लड़की का हाथ पकड़ लिया । एक हाथ मयदानव ने पकड़ लिया । बालि ने कहा ~ “मेरी चीज है, मेरे लिये रखी थी ऋषियों ने ।” मयदानव ~ “मैं कर में लाया हूँ, इसको ।” दोनों आपस में उसको खींचने लगे । ब्रह्मा जी ने यह देखकर संकल्प किया कि एक की दो हो जाओ । दो बन गई । बीच में अंगद पैदा हो गया । बालि जबरदस्त था, इसलिए वह उस लड़की को और अंगद को, दोनों को ले आया । वही बालि की रानी तारा कहलाई और उस पुत्र का नाम अंगद पड़ा । दूसरी मयदानव ले गया, जो ब्रह्मा के मन से पैदा हुई, इसलिये उसका नाम मन्दोदरी पड़ा । मयदानव वृद्ध था । उसने उसको पुत्री मानकर रावण के साथ उसकी शादी कर दी और पुष्पक - विमान जो कुबेर को जीत कर मयदानव लाया था, वह उसको दहेज में रावण को दे दिया । वही सालेरी संतों के वरदान से लंकापति को प्राप्त हुई और उस लंकापति की मृत्यु राम के द्वारा हुई । जो संत परमात्मा के साथ में भक्ति रूपी खेल खेलते हैं, उन पर सालेरी ने अपने आप को न्यौछावर कर दिया ।

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