बुधवार, 16 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=३)

#‎daduji‬ 
॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥ 
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - सवैया ग्रन्थ - (सुन्दर विलास) 
(२२. विपर्यय शब्द को अंग)
परिशिष्ट : एक, =तीन टीकाओं के साथ =

साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी(सम्पादक), पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)

कुंजर कौ कीरी गिली बैठी सिंध ही खाइ अघानौ स्याल । 
मछरी अग्नि मांहिं सुख पायौ जल मैं हुती बहुत बेहाल ॥
पंगु चढ्यौ पर्बत कै ऊपर मृतक हि देषि डरानौ काल । 
जाकौ अनुभव होइ सु जानै सुन्दर अैसा उलटा ख्याल ॥ ३ ॥ 
= ह० लि० १ टीका - कुंजर = काम । कीरी = बुद्धि । सिंध = संसै । स्याल = जीव । मछरी = मनसा । अग्नि = ब्रह्म अग्नि । जल(मैं हुती) = काया । पंगु = पूर्णातीत । मृतक = आपा अहंकार जीता । काल डरानौ = जीवन मृतक सेती काल डसौ ॥ ३ ॥ 

= ह० लि० २ री टीका - कुंजर - जो अतिबली मदोन्मत हस्ती की नांई काम । ताकौं कीरी नाम अति सूक्ष्म जो विवेकवती बुद्धि सो गिलि बैठी नाम जीति बैठी । अहो ! आश्चर्य सबल कों निबल जीति बैठा, इहि बिपर्यय । सिंध नाम अतिगति बलवंत जन्म-मरण भय को दाता जीव का ग्रास्क जो संसो ताकों पहली कर्माधीन अतिकायर स्यालरूपी जो जीव हो सो, अब गुरुसंत शास्त्र - उपदेश भजन ध्यान पुरुषार्थ करि ज्ञान कों पाय सबल होय ता संसा कों खायो नाम जीत्यो तृप्त हुवो । मछरी नाम मनसा सो जल नाम जलबूंद की काय ताका विकारां में, बहुत बेहाल नाम दुखी होती, सो अब अग्नि नाम सर्वदुख कर्मन को दाहक ब्रह्माग्नि ज्ञानाग्नि, ताँकों पाय बहोत सुष आनन्द पायो । पंगु नाम जो हलन - चलन गति है सो सर्व कामना के आसरे है, सो कामना मिटि गई, तब निश्चल हुआ । ‘अब पावा थिति पाकरी आँगन भया वदेश’ । इति । सो अैसो जो संत मन वा । परबत - नाम अत्यन्त ऊँचा कठिन आपा अभिमान, ता ऊपरि चढ्या नाम जीत्या, मोक्ष मार्ग में प्रवर्त्तमान हुआ । मृतक नाम ज्यूं मृतक शरीर कूं कोई सुख दुख विकार व्यापै नहीं त्यूं जीवते कों नहीं व्यापै वाको नाम जीवत मृतक है । अैसो संत को देषि कै डरानों नाम काल भी ता संत सों सदा डरता रहै है । ‘काल सज्या दे जगत कौ ।’ इति । तहां ‘काल प्रचण्ड को दण्ड मिट्यौ’ । इति । ता विपर्यय बाणी का पाठ कोंण जांणै ? तहां कै है ‘जाकौ अनुभव होय सो जाणै’ । अनुभव नाम सांख्तांतकार ज्ञान । अथवा भलै प्रकार शब्द शास्त्र, विवेक ज्ञान होय सो जाणैं ॥ ३ ॥ 

= पीताम्बरी टीका = अनंत वासना करि युक्त मनरूप जो हस्ति(कुंजर), ताकूं सूक्ष्म विचारवाली अंतर्मुख बुद्धिरूप कीरी, ताकूं प्रथम अविवेक करि जीवभाव पाया हुआ आत्मरूप स्याल । खाय अघानो - कहिये गुरु की कृपा सें अपने में उक्त अध्यास का लयकरि के परमात्मानंद कूं पाया - जिज्ञासावाली साभास बुद्धिरूप जो मछरी तानें संचित कर्मरूप अमृतर तृण के दाहक ब्रह्मज्ञानरूप अग्नि(ता) मांहिं सुख पायो । कहिये निरतिशयानंद कूं पाया । सो प्रथम अज्ञानकाल में संसाररूपी जल में बहुत बेहाल हुती । कहिये दुःखी थी - स्वार्गादिक लोक में और इस लोक में गमन औ आगमन की इच्छारूप चरणन तें रहित तीव्र वैराग्यवान् मुमुक्षुरूप जो पंगु, सो प्रपंच तें पर चिदकाशरूप पर्वत के ऊपर चढ्यौ, कहिये स्थित भयो । - देहेन्द्रियदि संघात के अभिमान तें रहित दग्ध पटवत् देहाभिमान से रहित, औ अध्यास की निवृत्तिवाले जीवन्मुक्तरूप जो मृतक । ताकूं देखि के काल डरानों, कहिये भयभीत हुआ । यहाँ श्रुति प्रमाण है - “परमात्मा के भयकरि मृत्यु भी दौड़ता है” । औ ज्ञानी ब्रह्मरूप होने तें काल का भी काल है । यातें काल कूं ज्ञानी का भय संभवै है । 

श्रीसुन्दरदासजी कहैं कि जो कोई अनुभवी कहिये ज्ञानी होय सो(सु) यह अज्ञानीजनों को दृष्टिकरि विपरीत औं आश्चर्यकारक ऐसा उलटा ख्याल, कहिये विषय जानै ॥ ३ ॥ 
= सुन्दरदासजी की साषी = 
“कीड़ी कुंजर कौं गिलै स्याल सिंह कौं षाइ । 
सुन्दर जल तैं मच्छली दौरि मैं जाइ” ॥ ४ ॥ 

= श्रीदादूवाणी का प्रमाण = 
“कीड़ी ये हस्ती विडारयौ तेन्हैं बैठी खाये ॥ 
- श्रीदादूवाणी, पद २१२ 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें