卐 सत्यराम सा 卐
सहज विचार सुख में रहै, दादू बड़ा विवेक ।
मन इन्द्रिय पसरै नहीं, अंतर राखै एक ॥
मन इन्द्रिय पसरै नहीं, अहनिशि एकै ध्यान ।
पर उपकारी प्राणिया, दादू उत्तम ज्ञान ॥
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साभार ~ Pannalal Ranga ~
प्रार्थना द्वारा हम आवश्यक बल प्राप्त कर सकते हैं
सुन्दर समाज का निर्माण
अब प्रश्न यह होता है कि हम अपने गुरु, नेता या शासक कैसे बनें ? भौतिकवाद की दृष्टि से मानव-मात्र को जो विवेक प्राकृतिक नियमानुसार मिला है, आस्तिकवाद की दृष्टि से जो विवेक प्रभु की अहैतुकी कृपा से मिला है और अध्यात्मवाद की दृष्टि से जो अपनी ही एक विभूति है, वह विवेक ही वास्तव में गुरु, नेता तथा शासक है, जो प्रत्येक भाई-बहिन को स्वतः प्राप्त है । पर, खेद तो यह है कि हम उस विवेक का प्रयोग समस्त जीवन पर न करके, समाज पर करने की सोचते हैं । समाज इन्द्रिय-जन्य ज्ञान पर ही विश्वास करता है। वह जैसा देखता है, वैसा बनता है । जिस चरित्र को हम अपने जीवन से नहीं दिखा पाते, केवल समझा कर समाज में उसका प्रचार करना चाहते हैं, अथवा यों कहो कि शासक बनकर बल-प्रयोगसे उसे समाज द्वारा मनवाना चाहते हैं अथवा गुरु बनकर समाज के जीवन में उसे ढालना चाहते हैं; यह वास्तव में सम्भव नहीं है ।
मानव को विवेक स्वयं 'मानव' होने के लिए मिला है । अत: यह अनिवार्य हो जाता है कि हम अपने विवेक से अपने ही दोषों का दर्शन करें और तप, प्रायश्चित्त एवं प्रार्थना आदि व्रतों द्वारा अपने को निर्दोष बनायें । प्रायश्चित्त तथा तप द्वारा अपने पर शासन हो सकता है और प्रार्थना द्वारा हम आवश्यक बल प्राप्त कर सकते हैं और शुद्ध सङ्कल्पों का व्रत लेकर हम अपने पर नेतृत्व कर सकते हैं । जिस जीवन से बुरे सङ्कल्प मिट जाते हैं, उस जीवन से समाज में स्वत: शुद्ध सङ्कल्पों का प्रचार हो जाता है। यह नियम है कि सङ्कल्प-शुद्धि से कर्म-शुद्धि स्वत: हो जाती है। शुद्ध सङ्कल्पों का प्रचार हो जाना ही समाज का वास्तविक नेतृत्व है । विवेक का आदर होने लगे, यही वास्तव में गुरुत्व है। विवेकी-जनों से ही विवेक के आदर का प्रचार होता है । शुद्ध सङ्कल्प-युक्त जीवन से ही शुद्ध सङ्कल्प व्यापक हो जाते हैं; और प्रायश्चित्त तथा तप-युक्त जीवन से ही समाज के प्रत्येक वर्ग और व्यक्ति में अपने पर शासन करने की भावना उत्पन्न हो जाती है ।
नमन
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