शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

= १३९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू जेती लहर विकार की, काल कँवल में सोइ ।
प्रेम लहर सो पीव की, भिन्न-भिन्न यों होइ ॥ 
दादू काल रूप मांही बसै, कोई न जानै ताहि ।
यह कूड़ी करणी काल है, सब काहू को खाइ ॥ 
दादू विष अमृत घट में बसैं, दोन्यों एकै ठाँव ।
माया विषय विकार सब, अमृत हरि का नाँव ॥ 
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साभार ~ Pannalal Ranga ~

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब सहस्त्र वर्ष अर्थात् भूमिलोक के तीन लाख साठ सहस्त्र वर्ष बीते तब भगवान् भृगुजी समाधि से उतरे तो उन्हें शुक्र दृष्टि न आया । जब भले प्रकार नेत्र फैलाकर देखा तब मालूम हुआ कि उसका शरीर कृश हो के गिर पड़ा है । यह दशा देख उन्होंने जाना कि काल ने इसको भक्षण किया है और धूप वायु और मेघ से शरीर जर्जरीभूत हो गया है, नेत्र गढ़ेरूप हो गये हैं, शरीर में कीड़े पड़ गये हैं और जीवों ने उसमें आलय बनाये हैं । घुराण अर्थात् कुसवारी और मक्खियाँ उसमें आती-जाती हैं, श्वेत दाँत निकल आये हैं-मानों शरीर की दशा को देखके हँसते हैं और मुख और ग्रीवा महाभयानकरूप, खपर श्वेत और नासिका और श्रवण स्थान सब जर्जरीभूत हो गये हैं । उस शरीर की यह दशा देख के भृगुजी उठ खड़े हुए और क्रोधवान् होकर कहने लगे कि काल ने क्या समझा जो मेरे पुत्र को मारा । शुक्र परम तपस्वी और सृष्टिपर्यन्त रहने वाला था सो बिना काल, काल ने मेरे पुत्र को क्यों मारा, यह कौन रीति है? मैं काल को शाप देकर भस्म करूँगा । 
तब महाकाल का रूप काल अद्‌भुत शरीर धरकर आया । उसके षटमुख, षटभुजा, हाथ में खग, त्रिशूल और फाँसी और कानों में मोती पहिने हुए, मुख से ज्वाला निकलती थी, महाश्याम शरीर अग्निवत् जिह्वा और त्रिशूल के अग्निकी लपटें निकलती थीं । जैसे प्रलयकाल की अग्नि से धूम निकलता है तैसे ही उसका श्याम शरीर और बड़े पहाड़ की नाईं उग्ररूप था और जहाँ वह चरण रखता था वहाँ पृथ्वी और पहाड़ काँपने लगते थे । निदान भृगुजी महाप्रलय के समुद्रवत् क्रोध पूर्ण थे, उनसे कहने लगा,हे मुनीश्वर! जो मर्यादा और परावर परमात्मा के वेत्ता हैं वे क्रोध नहीं करते और जो कोई क्रोध करे तो भी वे मोह के वश होकर क्रोधवान् नहीं होते । तुम कारण बिना क्यों मोहित होकर क्रोध को प्राप्त हुए हो? तुम ब्रह्मतनय तपस्वी हो और हम नीति के पालक हैं। तुम हमारे पूजने योग्य हो- यही योग्य हो-यही नीति की इच्छा है और तप के बल से तुम क्षोभ मत करो, तुम्हारे शाप से मैं भस्म भी नहीं होता । प्रलयकाल की अग्नि भी मुझको दग्ध नहीं कर सकती तो तुम्हारे शाप से मैं कब भस्म हो सकता हूँ । हे मुनीश्वर! मैं तो अनेक ब्रह्माण्ड भक्षण कर गया हूँ, और कई कोटि ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र मैंने ग्रास लिये हैं, तुम्हारा शाप मुझको क्या कर सकता है? जैसे आदि नीति ईश्वर ने रची है तैसे ही स्थित है । हम सबके भोक्ता हुए हैं और तुमसे ऋषि हमारे भोग हुए हैं, यही आदि नीति है । हे मुनीश्वर! अग्नि स्वभाव से ऊर्ध्व को जाता है और जल स्वभाव से अधः को जाता है, भोक्ता को भोग प्राप्त होता और सब सृष्टि काल के मुख में प्राप्त होती है । आदि परमात्मा की नीति ऐसे ही हुई है और जैसे रची है तैसे ही स्थिति है पर जो निष्कलंक ज्ञानदृष्टि से देखिये तो न कोई कर्त्ता है,न भोक्ता है,न कारण है, न कार्य है, एक अद्वैतसत्ता ही है और जो अज्ञान कलंकदृष्टि से देखिये तो कर्ता भोक्ता अनेक प्रकार भ्रम भासते हैं, हे ब्राह्मण! कर्त्ता भोक्ता आदिक भ्रम असम्यक् ज्ञान से होता है, जब सम्यक् ज्ञान होता है तब कर्त्ता, कार्य और भोक्ता कोई नहीं रहता । जैसे वृक्ष में पुष्प स्वभाव से उपज आते हैं और स्वभाव से ही नष्ट हो जाते हैं तैसे ही भूत प्राणी सृष्टि में स्वाभाविक फुर आते हैं और फिर स्वाभाविक रीति से ही नष्ट हो जाते हैं । ब्रह्मा उत्पन्न करता है और नष्ट भी करता है । जैसे चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जल के हिलने से हिलता भासता है और ठहरने से ठहरा भासता है तैसे ही मन के फुरने से आत्मा में कर्त्तव्य भोक्तव्य भासता है वास्तव में कुछ नहीं, सब मिथ्या है । जैसे रस्सी में सर्प भ्रम से भासता है तैसे ही आत्मा में कर्त्तव्य भोक्तव्य भ्रम से भासता है । इससे क्रोध मत करो, यह दुष्टकर्म आपदा का कारण है । हे मुनीश्वर! मैं तुमको यह वचन अपनी विभूति और अभिमान से नहीं कहता । यह स्वतः ईश्वर की नीति है और हम उसमें स्थित हैं । जो बोधवान् पुरुष हैं वे अपने प्रकृत आचार में विचरते हैं और अभिमान नहीं करते । जो कर्त्तव्य के वेत्ता हैं वे बाहर से प्रकृत आचार करते हैं और हृदय से सुषुप्ति की नाईं स्थित रहते हैं । वह ज्ञानदृष्टि धैर्य और उदार दृष्टि कहाँ गई जो शास्त्र में प्रसिद्ध है? तुम क्यों अन्धे की नाई स्थित रहते हैं । वह ज्ञान दृष्टि, धैर्य और उदार दृष्टि कहाँ गई जो शास्त्र में प्रसिद्ध है? तुम क्यों अन्धे की नाईं मोहमार्ग में मोहित होते हो? 
हे साधो! तुम तो त्रिकालदर्शी हो, अविचार से मूर्ख की नाईं जगत् में क्यों मोह को प्राप्त होते हो? तुम्हारा पुत्र अपने कर्मों के फल को प्राप्त हुआ है और तुम मूर्ख की नाईं मुझको शाप देना चाहते हो । हे मुनीश्वर! इस लोक में सब जीवों के दो-दो शरीर हैं- एक मनरूप और दूसरा आधिभौतिक । आधिभौतिक शरीर अत्यन्त विनाशी है और जहाँ इसको मन प्रेरता है वहाँ चला जाता है-आपसे कुछ कर नहीं सकता । जैसे सारथी भला होता है तो रथ को भले स्थान को ले जाता है और जो सारथी भला नहीं होता तो रथ को दुःख के स्थान में ले जाता है तैसे ही यदि जो मन भला होता है तो उत्तम लोक में जाता है जो दुष्ट होता है तो नीच स्थान में जाता है । जिसको मन असत् करता है सो असत् भासता है और जिसको मन सत् करता है वह सत् भासता है । जैसे मिट्टी की सेना बालक बनाते और फिर भंग करते हैं, कभी सत् करते, कभी असत् करते हैं और जैसे करते हैं तैसे ही देखते हैं, तैसे ही मन की कल्पना है । हे साधो! चित्तरूपी पुरुष है, जो चित्त करता है वह होता है और जो चित्त नहीं करता वह नहीं होता । यह जो फुरना है कि यह देह है, ये नेत्र हैं; ये अंग हैं इत्यादिक सब मनरूप हैं । जीव भी मन का नाम है और मन का जीना जीव है । वही मन की वृत्ति जब निश्चयरूप होती है तब उसका नाम बुद्धि होता है, जब अहंरूप धारती है तब उसका नाम अहंकार होता है और जब देह को स्मरण करती है तब उसका नाम चित्त होता है ।
इससे पृथ्वी रूपी शरीर कोई नहीं, मन ही दृढ़ भावना से शरीररूप होता है और वही आधिभौतिक हो भासता है और जब शरीर की भावना को त्यागता है तब चित्तपरमपद को प्राप्त होता है । जो कुछ जगत है वह मन के फुरने में स्थित है, जैसा मन फुरता है तैसा ही रूप हो भासता है । तुम्हारे पुत्र शुक्र ने भी मन के फुरने से अनेक स्थान देखे हैं । जब तुम समाधि में स्थित थे तब वह विश्वाची अप्सरा के पीछे मन से चला गया और स्वर्ग में जा पहुँचा । फिर देवता होकर मन्दारवृक्षों में अप्सरा के साथ विचरने लगा और फिर पारिजात तमाल वृक्ष और नन्दन वन में विचरता रहा । इसी प्रकार बत्तीस युग पर्यन्त विश्वाची अप्सरा के साथ लोकपालों के स्थान इत्यादिक में विचरता रहा और जैसे भँवरा कमल को सेवता है तैसे ही तीव्र संवेग से भोग भोगता रहा । जब पुण्य क्षीण हुआ तब वहाँ से इस भाँति गिरा जैसे पक्का फल वृक्ष से गिरता है । तब देवता का शरीर आकाशमार्ग में अन्तर्धान हो गया और भूमिलोक में आ पड़ा । फिर धान में आकर ब्राह्मण के वीर्य द्वारा ब्राह्मणी का पुत्र हुआ, फिर मालवदेश का राज्य किया और फिर धीवर का जन्म पाया । फिर सूर्यवंशी राजा हुआ, फिर विद्याधर हुआ और कल्प पर्यन्त विद्याधरों में विद्यमान रहा और फिर विन्ध्याचल पर्वत में लय होकर क्रान्त देश में धीवर हुआ । फिर तरंगीत देश में राजा हुआ,फिर क्रान्तदेश में हरिण हुआ और वनमें विचरा और फिर विद्यामान् गुरु हुआ । निदान श्रीमान् विद्याधर हुआ और कुण्डलादि भूषणों से सम्पन्न बड़ा ऐश्वर्यवान् गन्धर्वों का मुनिनायक हुआ और कल्प पर्यन्त वहाँ रहा । जब प्रलय होने लगी तब पूर्व के सब लोक भस्म हो गये-जैसे अग्नि में पतंग भस्म होते हैं-तब तुम्हारा पुत्र निराधार और निराकार वासना से आकाशमार्ग में भ्रमता रहा । जैसे आलय बिना पक्षी रहता है तैसे ही वह रहा और जब ब्रह्मा की रात्रि व्यतीत हुई और सृष्टि की रचना बनी तब वह सतयुग में ब्राह्मण का बालक वसुदेवनाम हो गंगा के तट पर तप करने लगा । अब उसे आठसौ वर्ष तप करते बीते हैं, जो तुम भी ज्ञानदृष्टि से देखोगे तो सब वृत्तान्त तुमको भास आवेगा । इससे देखो कि इसी प्रकार है अथवा किसी और प्रकार है ।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे कालवाक्यन्नामदशमस्सर्गः ॥10॥
नम

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