शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

= १४० =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू राम नाम निज औषधि, काटै कोटि विकार ।
विषम व्याधि थैं ऊबरै, काया कंचन सार ॥ 
दादू निर्विकार निज नांव ले, जीवन इहै उपाय ।
दादू कृतमम् काल है, ताके निकट न जाय ॥ 
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साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo ~
यदी आपको दीर्घायु बनना हैं तो सबसे पहला नियम हैं - अक्रोध को प्राप्त करो। किसी पर भी किसी सूरत में क्रोध न करो क्यों कि क्रोध सबसे पहले क्रोध करने वाले के पुण्य को, खून को जलाता है। फिर आता है आहार
- जो सात्विक हो... और उसमें वो भगवान को भोग लगाया.... साधु, ब्राम्हण, अतिथी के नंतर वृध्द जेष्ठ जन(मा-बाप)... बालगोपाल और फिर गृहस्वामी... इस प्रकार किया भोजन अमृतयुक्त होता है जिसे यग्यावशिष्ट भी कहते हैं। भोजन यग्य है.... जो हर ग्रासपर भगवन्नाम(मन में, कभी उच्चारण से भी) ले तो निराहार का पुण्य देता है। अर्थात अन्न धर्मयुक्त आचरण से अर्जित हो.... तभी यग्य होगा। काली कमाई के धनसे कोई सात्विक कार्य नहीं होता। सात्विक आहार में खाद्याखाद्य का विवेक जरुरी है । प्याज, लहसुन से भगवान को भोग नहीं लगता। भोजन पुर्व या उत्तराभिमुख होकर करे। दक्षिणाभिमुख होकर किया जप, भोजन असुर-पिशाच-राक्षस ग्रहण करते हैं.... उनको वैसा वरदान है। परोसनेवाला प्रसन्नता से खानेवालो में भगवदभाव से बिना किसी भेदभाव के परोसे और पानेवाला "भोजन, भोजन बनाने, देने, परोसनेवाला और स्वयम तथा भोजन क्रिया सब भगवान/ब्रह्म है इस भावसे भोजन शांत चित्त होकर करें। 
"ब्रह्मार्पणम् ब्रह्महवी ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यम् ब्रह्मकर्म समाधिनां।।
यही चिंतन कर्म, क्रिया, कर्ता, उद्देश, जिसके हेतु किया जा रहा वो, क्रियाशक्ति, पृष्ठभुमी.... सब एक परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण हैं इस चिंतन के साथ करे, फलाकांक्षा को श्रीकृष्ण को अर्पण कर.... तब तो आप मुक्त हो जाओगे।
आचार विचार का भी पालन अनिवार्य है। शौच(लघुशंका, दीर्घादि)करते वक्त दिन में उत्तराभिमुख होकर तथा रात्रीमें दक्षिणाभिमुख होकर करें... लघुशंका के बाद कम से कम चार कुल्ले और शौच के बाद(माटी से या साबुन से चार बार हाथपैर साफ कर) आठ बार कुल्ले करें पश्चात आचमन करें। शौच के पश्चात स्नान या कटिस्नान आवश्यक है।
भगवन्नाम का उच्चस्वर से संकिर्तन सभी पापों को जलाता है.... जहाँ तक सुनाई दे वहाँ तक के वातावरण की तत्काल शुध्दि होती है.... और वैसे सारे संसार को लाभ इसलिये होता है कि सब पृथ्वि के, हवा, आकाश के माध्यम से आपसमें जुडे हैं.... और वैग्यानिक स्तरपर सब कुछ वस्तुतः "और कुछ नहीं सिवाय अपनी कक्षा orbit में तेजीसे घुमते हुये परमाणु जो bonding से वस्तु, व्यक्ति के आकार में हैं.... और आपस में.... सारी सृष्टीमें सुक्ष्म involenterrily.... आपकी ईच्छा हो न हो.... आदान-प्रदान की क्रिया निरंतर चल रही है। आदान प्रदान में जहाँ शक्ति अधिक हो वहाँ से जहाँ कम हो और रिसेप्टीव्हीटी या ग्रहणशीलता हो वहाँ जाती है। याने आपके अंदर भगवान, साधुसंत, ब्राह्मणादि के प्रति आस्था, आदर प्रेम हो और आप शुध्द हो तो आप सैकड़ों हजारों किलोमीटर दूर होकर भी उर्जा को प्राप्त करोगे.... अर्थात पात्र शुध्दिपर प्राप्त उर्जाका स्तर निर्भर करता हैं....!! फिर बात आती हैं उसे बनाये रखनेकी retaintivity.... या खर्चने में विवेक.... अन्य जीवों पर उदारता से वितरण... प्रेम व्यवहार दान से। तो दीर्घायु ऐसे बना जाता है.... किसलिये....?? भोगके लिये नहीं.... भगवान के साथ भगवान के लिये योग-हेतु।




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