शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६१ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६१ =*
*= करोली नरेश को उपदेश =*
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दादूजी का उक्त पद सुनकर करोली नरेश ने कहा - आप यदि ऐसे देव की उपासना करते हैं तो मेरे को भी उस देव का दर्शन कराइये । हम तो भगवान् मुरारी की उपासना करते हैं, आपने तो उन मुरारी भगवान् का नाम भी नहीं लेकर दूसरा ही देव बताया है ।
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राजा की उक्त बात सुनकर दादूजी बोले - राजन् हमने मुरारि से भिन्न देव नहीं कहा है । उन मुरारि भगवान् को ही हम सत्य स्वरूप से धारण करते हैं किन्तु मुरारि भगवान् प्रकट होकर दर्शन दें, ऐसा तो कर्तव्य आपका नहीं ज्ञात होता है । आप ध्यान से सुनिये -
"करणी पोच, सोच सुख करही, 
लोह की नाव कैसे भव जल तिरही ॥टेक॥
दक्षिण जात, पच्छिम कैसे आवे, 
नैन बिन भूल बाट कित पावे ॥१॥
विष वन बेलि, अमृत फल चाहै, 
खाइ हलाहल, अमर उमाहै ॥२॥
अग्नि गृह पैसि कर सुख क्यों सोवे, 
जलन लागी घणी शीत क्यों होवे ॥३॥
पाप पाखंड किये पुण्य क्यों पाइये, 
कूप खन पड़िबा गगन क्यों जाइये ॥४॥
कहै दादू मोहि अचरज भारी, 
ह्रदय कपट क्यों मिले मुरारी ॥५॥
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काम तो बुरे और विचार सुख पाने का करे ऐसा मानव केवल लोहे की नाव से समुद्र तैरने वाले के सामान है । वह कैसे संसार सिन्धु के विषय जल से पार हो सकेगा ?
दक्षिण को जाने वाला पच्छिम में कैसे आयेगा ? मार्ग भूलकर नेत्रों बिना उसे कहां पा सकेगा ?
विष बेलियों के वन में अमृत-फल चाहे तो कहां मिलेगा । खाय तो हलाहल विष और अमर होने की प्रसन्नता दिखावे सो व्यर्थ ही है ।
अग्निगृह में प्रवेश करके सुख से कैसे सोयेगा ? वहां तो अति जलन ही उत्पन्न होगी, शीतलता कैसे प्राप्त होगी ?
पाप और पाखंड करने से पुण्य कैसे मिलेगा ? कूप खोदकर उसमें गिरने से आकाश में कैसे जायगा ?
वैसे ही हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है की ह्रदय में कपट रहते हुये मुरारि भगवान् कैसे मिलेंगे ?
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उक्त पद सुनकर करोली नरेश बोले - किस प्रकार के कर्तव्य से मुरारि भगवान् मिलते हैं ? उसकी विधि भी आप पूर्णरूप से मेरे को बताइये और आप कपट किसको कहते हैं ? यह भी निश्चित रूप से कहैं ? दादूजी ने कहा - जो असंग है, सबका मूल कारण है, उस सत्य ब्रह्म की उपासना ही सच्चा कर्तव्य है, अन्य सब मायिक प्रपंच कपट रूप है ।
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फिर दादूजी ने यह पद कहा -
"मूल सींच बधे ज्यों बेला, 
सो तत तरुवर रहै अकेला ॥टेक॥
देवी देखत फिरे ज्यों भूले, 
खाय हलाहल विष को फूले ।
सुख को चाहै पड़े गल पासी, 
देखत हीरा हाथ तैं जासी ॥१॥
केई पूजा रच ध्यान लगावें, 
देवल देखें खबर न पावें ।
तोरैं पाती युक्ति न जानी, 
इहिं भ्रम भूल रहै अभिमानी ॥२॥
तीर्थ व्रत न पूजैं आसा, 
वन खंड जाँहिं रहैं उदासा ।
यूं तप कर कर देह जलावैं, 
भरमत डोलैं जन्म गमावैं ॥३॥
सद्गुरु मिले न संशय जाई, 
ये बन्धन सब देहु छुड़ाई ।
तब दादू परम गति पावे, 
सो निज मूरति मांहिं लखावे ॥४॥"
जैसे वृक्ष बेलि आदि के मूल को सींचा जाय तब वृक्ष बेलि के पत्ते अपने आप ही बढ़ते हैं और फिर गिर जाते हैं, मूल ही रहता है, वैसे ही सबके मूल तत्त्व परब्रह्म की उपासना करने से सबकी ही उपासना हो जाती है ।
देवी-देवादि पत्तों के समान विनाशी हैं अद्वैत ब्रह्म ही स्थिर रहते हैं । जैसे कोई हलाहल विष खाकर मृत्यु को भूला हुआ फूला फिरता हो, वैसे ही देवी के उपासक देवी के दर्शन करके तथा मांस मदिरादि अभक्ष्य भक्षण; अपेय पान करके उनके परिणाम में होने वाले दुःख को भूलकर फूले फिरते हैं । वे चाहते तो सुख को हैं किंतु अन्त में उनके गले में यम पाश ही पड़ता है । ऐसे लोगों का मानव जन्म-हीरा देखते-देखते ही हाथ से चला जायगा ।
कितने ही अन्य देवताओं की पूजा करके ध्यान करते हैं; देव मंदिर में जाकर देवता का दर्शन करते हैं किंतु वे अपने आत्मस्वरूप प्रभु का कुछ भी ज्ञान नहीं प्राप्त करते । अभिमानी होने के कारण संतों के पास जाकर प्रभु उपासना की युक्ति नहिं जानने से अति मात्रा में तुलसी, विल्व पत्रादि तोड़ते हैं और इन पत्रों के चढ़ाने से ही प्रभु मिल जायेंगे, इस भ्रम से आन्तर साधन भूल रहे हैं ।
ग्राम से विरक्त हो, वन के भयंकर भाग में जाकर रहने से, तीर्थ, व्रत करने से प्राणी की आशापूर्ण नहीं होती है । इस प्रकार तपस्या करके तथा पंचधूनी ताप कर शरीर को जलाते हैं । भ्रम वश इधर-उधर घूमते हुये अपने मानव जन्म को खो देते हैं । उन्हें जब तक सद्गुरु न मिले तब तक उनका संशय दूर नहीं होता है ।
सद्गुरु मिल जाय तब तो ये उक्त सभी बन्धन रूप कर्म छुड़ादें । जो प्रभु-पतिव्रत से युक्त, प्रभु-उपासना करता है, उसी सत्य रूप पतिव्रत-युक्त को प्रभु अपना स्वरूप उसके हृदय में दिखाते हैं । वह जब प्रभु का साक्षात्कार कर लेता है तब प्रभु से अभेद स्थिति रूप परम गति को प्राप्त करता है ।
(क्रमशः)

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