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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*विन्दु ५७ दिन ३९*
*= तुलसी ब्राह्मण को उपदेश, जोधपुर नरेश का आना, अकबर को शुभाशीर्वाद =*
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४० वें दिन प्रातःकाल ही तुलसी ब्राह्मण बाग में दादूजी के पास एक महीने से आया, यह १० वें दिन तेजोमय तखत देखकर मूर्छित हो गया था । तब से एक मास तक बीमार था । इससे रक मास के पश्चात् ४०वें दिन दादूजी के पास आया था । जो अति पाप करता है, उसे यहां तत्काल फल मिल जाता है । मूर्ख प्राणियों की यही रीति होती है । उनको दंड मिले तब ही वे प्रीति करते हैं । इसलिये ही ईश्वर ने तुलसी को दंड देकर उसका हृदय शुद्ध किया ।
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इसलिये तुलसी ने आकर दादूजी के चरणों में नम्रता पूर्वक अपना मस्तक रख कर प्रणाम किया और बोला - स्वामिन् ! मेरे पर क्षमा करैं । तुलसी का उक्त वचन सुनकर दादूजी बोले - भैया ! पहले हमने क्रोध किया हो तब तो तुम कह सकते हो कि "क्षमा करैं" किंतु हमने तो सदा क्षमा ही धारण कर रखी है, क्रोध करते ही नहीं हैं । तुमको दुःख तो तुम्हारी ही कुमति देती है । तुम पंडित हो तथा ब्राह्मण के पुत्र हो, तो भी तुम्हारे अन्तःकरण में त्रिगुण रूप भूत नाचते ही रहते हैं ।
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चौरासी लाख जीवों की प्रकृति व्यापती है, वही तुमको दुःख देती है -
साधू निर्मल मल नहीं, राम रमै सम भाय ।
दादू अवगुण काढ़िकर, जीव रसातल जाय ॥
सूना घट सोधी नहीं, पंडित ब्रह्मा पूत ।
आगम निगम सब कथै, घर में नाचे भूत ॥
शूकर श्वान सियाल सिंह, रहै घट मांहिं ।
कुंजर कीड़ी जीव सब, पांडे जाणे नांहिं ॥
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साधन रूप कर्तव्य के बिना केवल शास्त्र का कथन करने वाले पंडित सूक्ष्म जन्मों को नहीं जान सकते । अग्राह्य ग्रहण वृत्तिरूप शूकर, ईषर्या वृत्ति रूप श्वान, भय वृत्ति रूप सियार, शौर्य वृत्ति रूप सिंह, कोप वृत्ति रूप सर्प, कामवृत्ति हस्ति और छिद्रान्वेषण वृत्ति रूप चींटी इत्यादि वृत्ति रूप से सभी सूक्ष्म प्राणी शरीर के भीतर अन्तःकरण में जन्मते-मरते रहते हैं । इस सूक्ष्म जन्म-मरण को अन्तरंग साधनहीन बहिर्मुख केवल शब्दार्थ जानने वाले पंडित लोग नहीं जान सकते हैं, कोई अन्तर्मुख संत ही जान पाते हैं ।
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फिर तुलसी ने कहा - स्वामिन् ! अब मैं आपके शरण में हूं, मेरा मन आपके चरणों में रखने की कृपा करैं और हे भगवन् ! जिससे मेरा कल्याण हो वह उपाय भी कृपा करके कहैं ? जिसको मैं अपना करके अपने कल्याण मार्ग में अग्रसर हो सकूं । तुलसी ब्राह्मण का निष्कपट नम्रता पूर्ण उक्त वचन सुनकर परम दयालु दादूजी बोले -
"एसो अलख अनंत अपारा, तीन लोक जाको विस्तारा ॥टेक॥
निर्मल सदा सहज घर रहै, ताको पार न कोई लहै ।
निर्गुण निकट सब रह्यो समाय, निश्चल सदा न आवे जाय ॥१॥
अविनाशी है अपरंपार, आदि अनन्त रहै निराधार ।
पावन सदा निरंतर आप, कला अतीत लिपत नहिं पाप ॥२॥
समर्थ सोई सकल भरपूर, बाहर भीतर नेड़ा न दूर ।
अकल आप कलै नहिं कोई, सब घट रह्यो निरंजन होई ॥३॥
अवरण आपैं अजर अलेख, अगम अगाध रूप नहिं रेख ।
अविगत की गति लखी न जाय, दादू दीन ताहि चितलाय ॥४॥
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तुलसी ! तुम नम्र भाव से परमात्मा में मन लगाओ फिर तुम्हारा कल्याण निश्चत ही हो जायगा । तुलसी ने पूछा - उन प्रभु का स्वरूप कैसा है ? यह त्रिलोकी जिनका विस्तरित विराट् रूप है, वे प्रभु ऐसे अनन्त अपार हैं कि - उनका वास्तविक स्वरूप मन इन्द्रियों से नहीं देखा जाता है । वे निर्मल हैं, सदा सहजावस्था रूप घर में रहते हैं, उनका पार कोई भी नहीं पाता । वे निर्गुण हैं, सबके समीप और सब में समाये हुये हैं, सदा निश्चल रहते हैं । व्यापक होने से उनमें जाना-आना नहीं बनता । वे सृष्टि के आदि और अंत में भी निश्चय पूर्वक अविनाशी तथा अपरंपार रूप से रहते हैं । वे समर्थ सब में परिपूर्ण हैं, बाहर भीतर एक रस हैं । सब के आत्म स्वरूप होने से समीप वा दूर नहीं कहे जा सकते । वे स्वयं निराकार हैं, इससे कालादि कोई भी उन्हें नष्ट नहीं कर सकते । माया रहित होकर भी सबके अन्तःकरण में आत्मरूप से स्थित हैं । उनका कोई भी रंग नहीं है । साधन बिना ही स्वयं ज़रा रहित हैं । लेख बद्ध नहीं हो सकते । अगम अगाध हैं, रूप-रेखा रहित हैं । जिन मन इन्द्रियों के अविषय प्रभु की सामर्थ्य अपार है, उनकी सीमा देखी नहीं जा सकती । तुम दीन भाव से उन प्रभु में ही सदा चित्त लगाये रहो, तुम्हारा कल्याण हो जायगा ।
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तुम जाकर बादशाह को कहो कि - तुमको कुछ पूछना हो तो पूछ सकते हो, अब हम यहां से विचरने का विचार करते हैं । तब तुलसी ब्राह्मण तो दादूजी को नम्रता पूर्वक प्रणाम करके चला गया फिर तत्काल ही जोधपुर नरेश बाग में दादूजी के पास आये और प्रेम पूर्वक प्रणाम करके हाथ जोड़े हुये सामने बैठकर बोले - स्वामिन् ! आपको धन्यवाद है, यहां सीकरी में नाम पा लिया है और बादशाह को तेजोमय तखत दिखाकर हिन्दू धर्म की रक्षा भी आपने की है । अब आप कृपा करके हमारे नगर जोधपुर में अवश्य पधारें । हम सब आपकी आज्ञा में रहेंगे, अब आप अवश्य ही पधार कर मारवाड़ देश को पवित्र बनावें ।
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तब दादूजी ने कहा - तुम्हारे नगर जोधपुर के पास ही पश्चिम की ओर गोहा की पहाड़ी पर हमारे शिष्य तेजानन्दजी रहते हैं, आप उनके संग से लाभ उठायें । उधर तुलसी ब्राह्मण ने बादशाह के पास जाकर दादूजी ने जो आज्ञा दी थी सो सब सुनादी । फिर अकबर बादशाह बीरबल, आमेर नरेश भगवत् दास, तुलसी ब्राह्मण को साथ लेकर दादूजी के पास आये और सब यथायोग्य प्रणाम करके सामने बैठ गये । तब दादूजी ने अकबर बादशाह को कहा - अब तुमको जो भी पूछना हो सो पूछ सकते हो, फिर यहां से हम शीघ्र ही विचरना चाहते हैं ।
(क्रमशः)
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