शनिवार, 2 जनवरी 2016

पद. ४३६

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३६. परिचय उपदेश । पंजाबी त्रिताल ~ 
तिस घरि जाना वे, जहाँ वे अकल स्वरूप,
सोइ इब ध्याइये रे, सब देवन का भूप ॥ टेक ॥ 
अकल स्वरूप पीव का, बान बरन न पाइये ।
अखंड मंडल माँहि रहै, सोई प्रीतम गाइये ॥ 
गावहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा, प्रकट पीव ते पाइये ।
सांई सेती संग साचा, जीवित तिस घर जाइये ॥ १ ॥ 
अकल स्वरूप पीव का, कैसे करि आलेखिये ।
शून्य मंडल माँहि साचा, नैन भर सो देखिये ॥ 
देखो लोचन सार वे, देखो लोचन सार,
सोई प्रकट होई, यह अचम्भा पेखिये ।
दयावंत दयालु ऐसो, बरण अति विशेखिये ॥ २ ॥ 
अकल स्वरूप पीव का, प्राण जीव का, सोई जन जे पावही ।
दयावंत दयालु ऐसो, सहजैं आप लखावही ॥ 
लखै सु लखणहार वे, लखै सोई संग होई, अगम बैन सुनावही ।
सब दुःख भागा रंग लागा, काहे न मंगल गावही ॥ ३ ॥ 
अकल स्वरूप पीव का, कर कैसे करि आणिये ।
निरन्तर निर्धार आपै, अन्तर सोई जाणिये ॥ 
जाणहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा, सुमिर सोई बखानिये ।
श्री रंग सेती रंग लागा, दादू तो सुख मानिये ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर का साक्षात्कार रूपी उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! अब उस सहजावस्था रूप घर में जाइये, जहाँ वे कला रूप अवयव से रहित, निरंजन स्वरूप ब्रह्म प्राप्त होते हैं । वे सब देवों के राजान् पति राजा हैं, उन्हीं का हृदय में ध्यान करिये । उस निराकार स्वरूप ब्रह्म में बाना = भेष, बरन = वर्ण, जाति, रंग, रूप आदि कुछ भी नहीं है । फिर वह अपनी स्वमहिमा रूप अखंड मंडल में रहते हैं अथवा तेरे हृदय रूप मंडल में चैतन्य रूप से निवास करते हैं । उसी प्रियतम स्वरूप परमेश्‍वर के नाम का गायन करते हुए अन्तःकरण से उस सार रूप ब्रह्म का आत्म - स्वरूप से ही साक्षात्कार करते हैं । इस प्रकार सहजावस्था रूप समाधि घर में जाकर इस जीवित अवस्था में ही परब्रह्म के साथ अभेदरूप सच्चा संग प्राप्त करिये । उस निरवयव स्वरूप प्रियतम ब्रह्म का उपरोक्त प्रकार से साक्षात्कार करिये अर्थात् वह सत्य - स्वरूप ब्रह्म, फिर निर्विकार हृदय - मंडल में ही प्रतीत होंगे । उनको तुम अपने ज्ञान नेत्रों से साक्षात्कार देखिये । फिर वहाँ यह आश्‍चर्य देखने में आवेगा कि जो निराकार हैं, वही ब्रह्म प्रगट हो रहे हैं । वह ऐसे दया रूप गुणों से युक्त दयालु हैं कि रंग - रूप रहित होने पर भी भक्तों पर दया करके अति विशेष ओंकार वर्ण से वा भक्तों की भावना द्वारा रंग रूप सहित भासने लगते हैं । वही जीव के प्राणाधार हैं । यद्यपि रंग रूप रहित ब्रह्म का जो भक्त होता है, वही उनको प्राप्त करता है । वे ऐसे परम दयालु हैं कि अपने भक्त को अनायास ही अपना स्वरूप साक्षात्कार कराते हैं । परन्तु ऐसा चतुष्टय - साधन - सम्पन्न जिज्ञासु ही देखता है । इस प्रकार जो देखता है, वही उनके संग हो जाता है और फिर उस अगम ब्रह्म सम्बन्धी ही वचन सुनाता है । फिर सुनाने वाले और सुनने वालों के सम्पूर्ण दु:ख नष्ट हो जाते हैं । फिर ब्रह्म का ही अभेद भावना रूपी रंग हृदय में आ लगता है । फिर वही ब्रह्म सम्बन्धी मंगलमय गीत गाता है । हे जिज्ञासुओं ! उस कला विभाग रहित परब्रह्म का दया रूपी हाथ, भक्ति - वैराग्य ज्ञान रूप साधनों द्वारा पकड़ना चाहिए । और फिर उस अविचल स्वरूप ब्रह्म का अपने आत्म - स्वरूप से अभेद करके उस अद्वैत निष्ठा को भीतर रखना चाहिए । इस प्रकार अन्तःकरण में विचार करके उसे जानिये । जब अन्तःकरण में विचार करके जानोगे, तब वह सम्पूर्ण विश्‍व के सार स्वरूप से ज्ञात होंगे । इस प्रकार उनका स्मरण करिये तथा उन्हीं का कथन करिये । इस प्रकार परब्रह्म स्वरूप, श्री रंग से जो तुम्हारा प्रेम लग जाय, तो तभी तुमको सुख मानना चाहिए । इस स्थिति से पहले, विरह भक्ति द्वारा, हरि का स्मरण करते रहना चाहिए ।



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