शनिवार, 30 जनवरी 2016

= २१ =

卐 सत्यराम सा 卐
सब देखणहारा जगत का, अंतर पूरै साखि ।
दादू साबित सो सही, दूजा और न राखि ॥ 
करता है सो करेगा, दादू साक्षीभूत ।
कौतिकहारा ह्वै रह्या, अणकर्ता अवधूत ॥ 
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साभार ~ Pannalal Ranga ~
चैतन्य के, साक्षी के। शुद्ध साक्षी ! सिर्फ देखो ! दुख हो दुख को देखो, सुख हो सुख को देखो !
दूसरी बात यह मैंने कहा भी नहीं कि सुख और दुख में प्रतिक्रिया करना छोड़ दें। यह अष्टावक्र ने भी कहा नहीं। सुख—दुख में समता रखने का अर्थ सुख—दुख में प्रतिक्रिया करना छोड़ देना नहीं है। सुख—दुख में समता रखने का अर्थ केवल इतना ही है कि ‘मैं साक्षी रहूंगा; दुख होगा तो दुख को देखूंगा, सुख होगा तो सुख को देखूंगा।’ इसका यह अर्थ थोड़े ही है कि जब तुम बुद्ध को काटे चुभाओगे तो उनको दुख नहीं होता। बुद्ध को कांटे चुभाओगे तो तुमसे ज्यादा दुख होता है; क्योंकि बुद्ध तुमसे ज्यादा संवेदनशील हैं; तुम तो पथरीले हो, बुद्ध तो कोमल कमल की तरह हैं! तुम जब बुद्ध को काटे चुभाओगे तो बुद्ध को पीड़ा तुमसे ज्यादा होती है; लेकिन पीड़ा हो रही है शरीर में, बुद्ध ऐसा जान कर दूर खड़े रहते हैं। देखते हैं, पीड़ा हो रही है; जानते हैं, पीड़ा हो रही है—फिर भी अपना तादात्म्य पीड़ा से नहीं करते। जानते हैं : मैं जानने वाला हूं ज्ञाता—स्वरूप हूं।
प्रतिक्रिया छोड़ने को नहीं कह रहे हैं। यह नहीं कह रहे हैं कि घर में आग लग जाये तो तुम बैठे रहना तो तुम बुद्ध हो गये, भागना मत बाहर ! भागते समय भी जानना कि घर जल रहा है, वह मैं नहीं जल रहा। और अगर शरीर भी जल रहा हो तो जानना कि शरीर जल रहा है, मैं नहीं जल रहा। इसका यह मतलब नहीं कि शरीर को जलने देना। शरीर को बाहर निकाल लाना। शरीर को कष्ट देने के लिए नहीं कह रहे हैं।
प्रतिक्रिया—शून्य करने का तो अर्थ हुआ कि तुम पत्थर हो गये, जड़ हो गये। तो बुद्ध पत्थर नहीं हैं। बुद्ध से बड़ा करुणावान कहा पाया तुमने ? अष्टावक्र पत्थर नहीं हो गये होंगे। प्रेम की धारा बही। तो जिनसे प्रेम का झरना बहा, उनकी संवेदनशीलता बढ़ गई होगी, घट नहीं गई होगी। उनके पास महाकरुणा उतरी।
लेकिन तुम गलत व्याख्या कर ले सकते हो।
और जिन्होंने पूछा है, थोड़े शास्त्रीय बुद्धि के मालूम होते हैं; थोड़ा बुद्धि में कचरा ज्यादा है। कुछ पढ़ लिया, सुन लिया, इकट्ठा कर लिया—वह काफी चक्कर मार रहा है ! वह सुनने नहीं देता, वह देखने भी नहीं देता। वह चीजों को विकृत करता चला जाता है।
राही रुके हुए सब 
भीतर का पानी अधहंसा बाहर जमी बरफ है
एक तरफ छाती तक दल—दल अगम
बाढ़ का दरिया एक तरफ है। 
मनमानी बह रही हवाएं जंगल 
झुके हुए सब राही रुके हुए सब।
बंद द्वार, अधखुली खिड़कियां
झांक रहीं कुछ आंखें
सूरज के मुंह पर संध्या की
काली अनगिन तीर सरीखी—सी
चुभती हुई सलाखें अपने चेहरे के पीछे 
चुप सहमे लुके हुए सब
राही रुके हुए सब ! अपने चेहरे के पीछे चुप
सहमे लुके हुए सब राही रुके हुए सब !
ये जो चेहरे हैं, मुखौटे हैं—बुद्धिमानी के, पाडित्य के, शास्त्रीयता के—इनके पीछे कब तक छुपे रहोगे ? ये जो विचारों की परतें हैं, इनके पीछे कब तक छुपे रहोगे ? इन्हें हटाओ ! भीतर के शुद्ध चैतन्य को जगाओ।
द्रष्टा की तरह देखो, विचारक की तरह नहीं। विचारक का तो अर्थ हुआ मन की क्रिया शुरू हो गई तो अगर अष्टावक्र को समझना हो तो चैतन्य, शुद्ध चैतन्य की तरह ही समझ पाओगे। अगर तुम सोच—विचार में पड़े तो अष्टावक्र को तुम नहीं समझ पाओगे, चूक जाओगे।
अष्टावक्र कोई दार्शनिक नहीं हैं, और अष्टावक्र कोई विचारक नहीं हैं। अष्टावक्र तो एक संदेशवाहक हैं—चैतन्य के, साक्षी के। शुद्ध साक्षी ! सिर्फ देखो ! दुख हो दुख को देखो, सुख हो सुख को देखो ! दुख के साथ यह मत कहो कि मैं दुख हो गया, सुख के साथ यह मत कहो कि मैं सुख हो गया। दोनों को आने दो, जाने दो। रात आये तो रात देखो, दिन आये तो दिन देखो। रात में मत कहो कि मैं रात हो गया। दिन में मत कहो कि मैं दिन हो गया। रहो अलग— थलग, पार, अतीत, ऊपर, दूर ! एक ही बात के साथ तादात्म्य रहे कि मैं द्रष्टा हूं साक्षी हूं।
हरि ओम तत्सत् !

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