卐 सत्यराम सा 卐
साहिब जी के नांव में, भाव भगति विश्वास ।
लै समाधि लागा रहै, दादू सांई पास ॥
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साभार ~ नरसिँह जायसवाल ---
भजन शब्दों से नहीं, भावना से ---
--- एक बार गुरु गोविन्द सिंह के शिष्य सामूहिक रूप से उनके समक्ष उपस्थित हुए।
उन सभी ने गुरु गोविन्द सिंह से अपनी समस्या बताते हुए कहा -- 'हम प्रतिदिन भगवान का भजन करते हैं, पर हमें कोई लाभ नहीं होता।'
इस पर गुरु गोविन्द सिंह जी बोले -- 'मैं इस प्रश्न का उत्तर कुछ समय बाद दूंगा।'
शिष्य चले गए। सीख वही उत्तम होती है, जो व्यवहारिक होती है, केवल कहने मात्र से लोग उसे समझ नहीं पाते, आत्मसात नहीं कर पाते और उसे व्यवहार में नहीं ला पाते।
--- कुछ दिनों बाद गुरु गोविन्द सिंह ने शिष्यों को बुलाकर कहा -- 'तुम सभी मिलकर एक बड़े मटके में ताड़ी भरकर लाओ और उससे कुल्ले कर मटके को खाली कर दो।' सभी शिष्य गए और आज्ञानुसार एक बड़े मटके में ताड़ी भरकर लाए। अब सभी शिष्य उस मटके के समीप बैठकर ताड़ी का कुल्ला करके उसे खाली करने लगे, क्योंकि आदेश तो यही था। देखते-देखते शिष्यों ने मटके में भरी हुई पूरी ताड़ी का रस मुंह में लेकर नीचे गिरा दिया। मटका खाली कर वे गुरु के पास पहुंचे।
गुरु गोविन्द सिंह ने पूछा -- 'क्या तुमने पूरी ताड़ी समाप्त कर दी ?' शिष्यों ने स्वीकृति में कहा कि -- 'गुरुदेव ! आपकी आज्ञानुसार हमने कुल्ला करके ताड़ी का मटका खाली कर दिया है।'
गुरु गोविन्द सिंह फिर बोले -- 'इतनी ताड़ी थी, उससे तुम्हें नशा नहीं आया ?' शिष्यों ने विस्मय के साथ प्रत्युत्तर देते हुए कहा -- 'गुरुदेव ! हमने ताड़ी को गले से नीचे ही नहीं उतारा, तब नशा कैसे होगा ?'
गुरु गोविन्द सिंह ने उनकी बात से उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा -- 'शिष्यों ! तुमने भगवान का भजन किया है, पर ऊपर-ऊपर से। भगवान के नाम को गले से नीचे उतारा ही नहीं, तब तुम्हें उसका लाभ कैसे होगा ? जब तक भगवद् भजन के साथ तुम्हारा मन नहीं जुड़ेगा, तुम भगवान के नाम के पीछे पागल नहीं बन जाओगे, तब तक तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा।'
इस प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि साधन-भजन, मंत्र-जप तो बहुत लोग करते हैं और करते रहेंगे, लेकिन उसका लाभ व् उस कार्य में आनंद उन्हीं लोगों को मिलेगा, जो उसे अपने अंदर आत्मसात् करेंगे। मुंह से अच्छा बोलने व् जपने मात्र की क्रिया तो मात्र सतही होती है, यह तो कुल्ला करने की क्रिया के समान ही है। इसका कोई विशेष फल नहीं है, क्षणिक फल है, लेकिन यदि यह साधन-भजन आंतरिक गहराई के साथ किया जाए, भावनाओं का संपुट लगाया जाए, तो यह ऐसे कार्य करेगा, जैसे किसी मधुर रस का पान किया गया हो, फिर इस कार्य में भी आनंद आने लगेगा।
साभार -- सन्मार्ग / अंजू जैन !
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